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Sunday, March 26, 2023

कोरोना: बिहारियों की दुर्दशा के लिए बिहारी ही जिम्मेवार!

[वार्ता स्पेशल]: [शशि भूषण ठाकुर की कलम से]

समस्या कोई ‘कोरोना’ नहीं है। समस्या हम स्वयं बिहारी हैं। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ और जान लेंगे उतनी जल्दी भला होगा।

पुणे, हैदराबाद, बैन्गलुरु से लेकर Google और Microsoft के office में बैठे बिहारी अभियंताओं, और देश के अनेक कारखानों में बिहारी प्रबंधकों-महाप्रबंधकों, दिल्ली में बैठे बिहारी IAS अधिकारियों-नौकरशाहों और चिकने लाल गाल वाले बिहारी नेता-मंत्रियों को देखकर आपको गर्व होता होगा, जरूर होता होगा। मुझे कोफ्त होती है। क्यों?

हम पढ़ लिख कर ज्ञानी हो जायें या अनपढ़ रह जायें- हमें प्रदेश छोडना ही होता है। जिस प्रदेश के युवाओं को अपनी मिट्टी से प्यार नहीं उन्हें इस देश की मिट्टी कैसे प्यार देगी? क्यों आजादी के 70 साल बाद भी बिहारी मिट्टी अपने बेटों-बेटियों को रोजगार का आँचल दे पाने से विफल रही है? यह सवाल किसी ठाकोर या ठाकरे से नहीं बल्कि उनसे पूछना चाहिये, जिन्हे हम अपना भाग्य विधाता मान बैठे हैं। यह सवाल श्री कृष्ण सिंह से लेकर नितीश कुमार तक से पूछा जाना चाहिये। यह सवाल चारालू के काबिल बेटों, अर्थशास्त्री सुखी मोदी, जन-विनाशक कामबिलास, बात-बात पर पाकिस्तान भेजने वाले महाराज सिंह, महापंडित चवनी चौबे और बिहार की चीनी मिलों का सर्वनाश कर चुके कम्युनिस्टों-कांग्रेसियों से पूछा जाना चाहिये। अच्छी पढाई चाहिये या फिर बेहतर ईलाज, हमें बिहार छोड़ना ही पड़ता है। रोजगार और रोटी की तो उम्मीद भी मत रखिये। कुछ मुठ्ठी भर सरकारी नौकरों और बूढ़े होते किसानों को छोड़ कोई भी बिहारी अपनी माटी में लोटना और लौटना नही चाहता। क्यों? आर्यभट्ट की महान संतानें एक भी ढंग का विद्यालय या विश्वविद्यालय नहीं बना पाईं। अस्पताल की तो पूछिए ही मत। क्यों?

देश में सबसे अधिक अभियंता पैदा करने वाले बिहार के गाँधी सेतु पर पिछले 27 सालों से मरम्मत का काम चल रहा है। भाई! हम पुल का मरम्मत कर रहें हैं या नया पुल बना रहें हैं? इस पुल के मरम्मत पर हम जितना खर्च कर चुके हैं- उतने में और कम समय में नया और बेहतर पुल बनाया जा सकता था। पूरी गंगा पर गिनती के 5 पुल हैं बिहार मे। उनमें से एक गाँधी सेतु आखिरी सांसें ले रहा है, बस किसी दुर्घटना की प्रतीक्षा है, भाग्य विधाताओं को क्या पैसे की कमी है, या थी? नहीं। अगर पैसे की कमी होती तो मिश्र से लेकर चालू यादव तक के पास लूटने के लिये पैसा नहीं होता खजाने में। बिहार के सिनेमा घर, पैट्रोल पम्प और नये बनते सड़कों की ठेकेदारी में लगी काली कमाई की आलिशान निशानी आपको हर बिहारी शहर में देखने को मिलेगी। हर शहर के नेता-मंत्री का राजमहल आपको उनके दारिद्र्य का भान करायेगा। जहाँ आज भी जेलों से सरकारें चलायीं जा सकती हों। जेल में बन्द कोई भी जननायक आपको संदेश भेज कर बुला लेता हो और अपनी बिन माँगी कृपा आप पर थोप देता हो। दूसरी तरफ उसी प्रदेश में मजदूरों का पलायन करता हुजूम, बसों और ट्रेनों में बकरियों के झुंड की तरह ठूँस दिया जाता हो, और हमें सब सामान्य लगता हो। तो क्षमा कीजियेगा हम महाराष्ट्र और गुजरात ही नहीं बहुत जल्दी दिल्ली और दूसरे प्रदेशों में भी पीटते मिलेंगे। बुरा लग रहा होगा। पर यही वो विकास है, जिसे ओढ़कर, सुशासन बाबू विकास पुरुष बने बैठे हैं। बाल्मीकि, जनक, याज्ञवल्य, चंद्रगुप्त, अशोक, दिनकर और बेनीपुरी पर घमंड करने वाले हम बिहारी कब तक इतिहास को सीने से चिपका कर इतराते रहेंगे। प्रश्न ये नहीं की हम क्या थे? प्रश्न ये है की हम क्या हैं? और क्या होंगे?

बिहार के अनेक बेटे-बेटियों ने एकल प्रगतियां बहुत की हैं, और कर भी रहें है। पर एक समाज के रूप मे बिहार हर दिन पतन के गर्त में जा रहा है। सुपौल के आवासीय बालिका विद्यालय पर बच्चियों के ऊपर हमले में लड़कों के साथ उनके माँ बाप का शामिल होना, और ब्रजेश ठाकुर जैसे राक्षसों का समाज में सम्मानित होना, हाजीपुर में जीतीया व्रती महिला के साथ माँ गंगा की अमृतधारा के बीच सामुहिक बलात्कार, केवल उस महिला के सम्मान का हनन नहीं, बल्कि माता जानकी के लव-कुशों के अभिमान और सम्मान का मर्दन था। एक समाज का इससे अधिक और क्या पतन होगा? संगीत के नाम पर अश्लील भोजपूरी गाने, डांस के नाम पर सोनपुर मेले से लेकर बाबा गोरखनाथ के मेले तक में आयोजकों द्वारा प्रायोजित नंगा नाच, हमें क्या सिखा रहा है- हमारे सामने है। मिठापुर बस अड्डे पर 13-14 साल के किशोर आपको अपने auto में खींचते दिख जायेंगे, मजाल है आप मना कर पायें। नहीं जाना हो तो भी चलिये। मना करके देखीये वही किशोर आपकी माँ-बहन को सम्मानित करके निकल जायेंगे। चंद कदम दूर लगा पुलिस चेकपोस्ट पूरी मुस्तैदी से माता लक्ष्मी की आराधना के पुण्यकार्य में लगा होगा। बिहार का यह नया विकसित रूप हमें झकझोर कर नहीं जगा पाता! क्योंकि इन सबको हमने आत्मसात कर लिया है। ये है हमारे बिहार की समाजिक प्रगति।

एक राज्य के रूप में हमारी प्रगति का आलम ये है कि हमें स्वयं को बिहारी कहने में भी शर्म की अनुभूति होती है। हम सब बिहार के बाहर अपने आप को दिल्ली वाला बताते फिरते हैं और आज भी हम नालंदा, विक्रमशिला, मगध, वैशाली और रोहितास्व के पौराणिक नगर रोहतास पर इतराते फिरते हैं। क्या कारण है कि बिहार बस मजदूर पैदा करने वाला राज्य बन कर रह गया है? क्या कारण है कि सारी जननायक ट्रेनें बिहार से ही चलती हैं? महानगरों की ओर। इन ट्रेनों को मैं ‘मजदूर एक्सप्रेस’ कहता हूँ। चौकिये मत! रेलवे की नजर में बिहारियो की औकात यही है। वरना क्या कारण है कि पूरे देश में समय पर (2-4 घंटे की देरी से) चलने वाली ट्रेनें बिहार मे 12-13 घन्टे नहीं 20-40 घंटे भी लेट हो जातीं हैं। और मजाल है कि किसी रेलवे अधिकारी को फर्क तक पड़ता हो। वो भी तब जब देश के हर रेलवे जोन में बिहारी लोग ठसाठस भरे हैं। कारण बस एक ही है- बिहार मजदूरों का राज्य है। उससे भी अधिक आत्मसम्मान से हीन लाशों का राज्य है। प्रवासी मजदूरों और श्रमिकों का राज्य है। हम सब प्रवासी मजदूर ही हैं, कुछ ज्यादा कमा रहें हैं तो कुछ कम, बस दिहाड़ी का फर्क है। बिहारी युवा रोजगार मांगने वाला बन कर रह गया है। रोजगार देने वाला क्यों नहीं बन पाता? पूछियेगा अपने – अपने भगवानों से, जिनका झंडा ढोते-ढोते हम अपनी पहचान भूलकर भेड़ों की भीड़ बनकर रह गये हैं।

हमारे नेता हमें ठाकरे, कजरिया और ठाकोर में उलझा कर रखना चाहते हैं, ताकि हम उनसे उनकी अकर्मण्यता पर प्रश्न नहीं पूछ पायें। विद्यालय, सड़क, बिजली, पानी, अस्पताल, विश्वविद्यालय, उद्योग और कृषि के विनाश पर उनसे सवाल नहीं कर पायें। समझिए इन रंगे सियारों के लम्पटपन को।

अगर वाकई कुछ बदलना चाहते हैं, तो इस दिवाली अपने नेताओं को शुभकामनायें नहीं लानत भेजिए। छठ के ठेकुआ के साथ अपने भाग्य विधाताओं और नीति निर्माताओं को भी लानत भेजिये। टोकरी भर-भर कर, उपर से रंगीन पन्नी लगा कर भेजिए। शायद उनकी आत्मा जग जाये। अगर उनकी आत्मा नहीं भी जगी, तो कम से कम हम सवाल पूछना तो सीख ही जायेंगे। लव-कुश ने भी चक्रवर्ती सम्राट अयोध्या नरेश प्रभु राम की अजेय सेना को रोक लिया था। रोकिये सम्राट के सैनिकों का रास्ता, उनके चमचों-मंत्रियों का रास्ता। पूछिये क्या किया उन्होने बिहार के लिए कि बिहारी आज मजबूर है पलायन के लिए। कहा जाता है कि उत्तम खेती मध्यम वाण नीच करें चाकरी….. इसके बावजूद बिहार के लोग अपना मूल पुश्तैनी पेशा कृषि छोड़कर दूसरे प्रदेशों में क्यों जा रहे हैं!

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