एजेंसी: विक्की कौशल की फिल्म ‘सैम बहादुर’ का टीजर रिलीज हो गया है। यह फिल्म जिनके जीवनी से प्रेरित होकर बनाई गई है ꫰ आज मैं उनकी कहानी आप लोगों को सुनाने जा रहा हूँ, उस शख्सियत का नाम था सैम मानेकशॉ। वैसे उनका पूरा नाम सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ था। हालांकि उनकी कहानी इतनी दिलचस्प और साहसी है कि इस कहानी को परदे पर देख कर मज़ा ही आ जायेगा। फिर भी मैं आपको थोड़ी बहुत बातें बता ही देता हूँ।
अदम्य साहस और युद्धकौशल के लिए मशहूर, भारतीय सेना के इतिहास में स्वर्णिम दस्तख़त करने वाले सैम मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में एक पारसी परिवार में हुआ था। उन्होने 1934 में देहरादुन की सेना अकादमी से कमीशन हासिल किया था और भारतीय सेना मे भर्ती हुए थे। अमृतसर में जन्मे भारत के सबसे ज्यादा चर्चित और कुशल सैनिक कमांडर पद्मभूषण, पद्मविभूषण फील्ड मार्शल सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ ने भारत के लिए कई महत्वपूर्ण जंगों में निर्णायक भूमिका निभाई थी, उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है – 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ जीत, जिसका सेहरा उनके सिर ही बाँधा जाता है। तब से सैम बहादुर के नाम से मशहूर फील्ड मार्शल मानेकशॉ राष्ट्रीय महानायक के रूप में देखे जाते हैं।
पहले भी बन चुकी है फिल्म
सैम बहादुर पर एक डाक्यूमेंट्री फिल्म पहले भी बन चुकी है – ‘इन वार एंड पीस : द लाइफ ऑफ फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ’, यह फिल्म दादा द्वारा अपने पोते को बताए गए किस्से पर आधारित है, जिसमें दादा यानि सैम मानेकशॉ अपने पोते को भारत के कुछ यादगार ऐतिहासिक पलों के बारे में जानकारी देते हैं।
17वी इंफेंट्री डिवीजन में तैनात सैम ने पहली बार द्वितीय विश्वयुद्घ में जंग का स्वाद चखा, बर्मा अभियान के दौरान सेतांग नदी के तट पर जापानियों से लोहा लेते हुए सैम गम्भीर रुप से घायल हो गए, पेट मे कई गोलियाँ लगने पर उनका बचना लगभग नामुमकिन हो गया था। उन्हें गम्भीर अवस्था में रंगून के सैनिक अस्पताल में लाया गया, जब एक सर्जन ने उनका ऑपरेशन करने से पहले उनसे पूछा “what happen to you” तो उन्होने हँसते हुए कहा “I was kicked by a bloody mule!” उनकी दिलेरी से प्रभावित हो सर्जन ने कहा “Given your sense of humor, it will be worth saving you!”
प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को दिए ज़वाब
उनके अदम्य साहस से प्रभावित बर्मा मोर्चे के कमांडिंग आफिसर मेजर जनरल डी.टी. कॉवन ने उन्हें जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते देख अस्पताल के बिस्तर पर ही स्वयं का मिलिट्री क्रास उन्हें प्रदान करते हुए कहा ‘मरने के बाद पदकों का कोई मोल नहीं होता।’ हर योद्घा के साथ कई रोचक किस्से और रोमांचक वाकये जुड़े होते हैं और सैम बहादुर भी इसके अपवाद नहीं रहे हैं। यह किस्सा तो आज भी याद किया जाता है कि कैसे 1971 की लड़ाई के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें पूछा कि ऐसी चर्चा है कि आप मेरा तख़्ता पलटने वाले हैं, सैम ने अपने जिन्दादिल अंदाज में कहा, ‘क्या आपको नहीं लगता कि मैं आपका सही उत्तराधिकारी साबित हो सकता हूँ? क्योंकि आप ही की तरह मेरी भी नाक लंबी है।’ और फिर सैम ने कहा, ‘लेकिन मैं अपनी नाक किसी के मामले में नहीं डालता और सियासत से मेरा दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं और यही अपेक्षा मैं आप से भी रखता हूँ।’
40 साल तक देश की सेवा की
1971 की जंग के दौरान पाकिस्तानी सेना के कैप्टन मलिक की बहादुरी से प्रभावित सैम ने सार्वजनिक रुप से उनके साहस की सराहना की थी तथा पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्या खान से उनके लिए पदक तक की सिफारिश कर डाली। 4 दशकों तक देश की सेवा करने के बाद सैम बहादुर 15 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से सेवानिवृत्त हुए। सैम को आज तक इस बात का मलाल है कि शिमला समझौते के दौरान भारत सरकार ने कश्मीर समस्या सुलझाने का सुनहरा मौका हाथ से जाने दिया। सैम अब एकांत की जिंदगी बसर करना चाहते हैं, वर्तमान में चल रही लड़ाईयों पर प्रतिक्रिया पर सैम कहते हैं, ‘मैं तो शांतिप्रिय आदमी हूँ। इन सब बातों के बारे में कुछ नहीं जानता’ लेकिन सभी जानते हैं कि इस रणबांकुरे के पास आज की पीढ़ी को सुनाने के लिए ढेरों मिसालें हैं।
27 जून 2008 को ली अंतिम साँस