भागवत कथा सुनने से मनुष्य के सभी पापों से मुक्ति मिलती है:- जीयर स्वामी

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शुभम जायसवाल

श्री बंशीधर नगर(गढ़वा):– भागवत कथा सुनने के कारण ही भक्ति के पुत्र ज्ञान तथा वैराग्य ठीक हो गए। श्रीमद्भागवत महापुराण भगवान की साक्षात् मुर्ति हैं। इससे सुनने से स्मरण से पापों का नाश होता है। आत्मा तृप्त होती है। दिल दिमाग शांत होता है। श्रीमद्भागवत के कथा के कारण ही भक्ति के दोनों पुत्र स्वस्थ हो गए।

कीर्तन आनंद का विषय होता है।

कीर्तन आनंद का विषय होता है। कीर्तन में तन्मयता होनी चाहिए। कीर्तन का बहुत बड़ा महत्व होता है। शास्त्र में भगवान को पूजन करने के लिए अनेक उपाय बताया गया है। एक उपाय है भगवान के सामने नृत्य करना। परंतु आज दुर्भाग्य है कि व्यास की गद्दी पर बैठ करके व्यास गद्दी के नियम के विरूद्ध खड़े होकर नाच रहें है। यह भारत की संस्कृति के लिए दुर्भाग्य है। व्यासगद्दी की एक गरिमा होती है। मर्यादा होती है। वेद और शास्त्र के अनुसार जो ऐसा करता है ठीक नहीं है। जो आज के युग में नृत्य करते हैं वो तन्मयता के साथ नही बल्कि दिखावा करते हैं जो ठीक नहीं है। भगवान को प्रसन्न करने का दुसरा माध्यम है गीत गाकर। तीसरा वेद, पुराण का पाठ करके भगवान को प्रसन्न किया जाता है

धर्म की जिज्ञासा के बाद ब्रह्म की जिज्ञासा करनी चाहिए। बिना धर्म को जाने ब्रह्म की खोज कठिन होती है। भूमि में छुपी खनिज-सम्पदा एवं दूध में मिले पानी को नंगी आँखों से नहीं देखा जा सकता, इसके लिए उपकरण की आवश्यकता होती है। उसी तरह ब्रह्म को जानने के लिये धर्म रुपी उपकरण आवश्यक है। जैन धर्म सनातन से है, परन्तु सनातन धर्म-दर्शन नहीं स्वीकारने के कारण सर्वमान्य नहीं हो पाया। सनातन धर्म दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं।

श्री जीयर स्वामी ने कहा कि मानव जीवन में शरीर से कर्म होता है जिसे मन संचालित करता है। मन को नियंत्रित रखना चाहिए। अंगुलिमाल का शरीर वही रहा लेकिन मन के बदल जाने से वह अहिंसा का पुजारी बना। श्री जीयर स्वामी जी ने कहा कि एक बार राजा जनक आत्म ज्ञान प्राप्त करने के लिये एक सभा बुलायी। उन्होंने कहा कि अल्प समय में जो आत्मज्ञान करायेगा, उसे आधा राज दे देंगे। विद्वानों ने अलग-अलग राय दी। राजा जनक संतुष्ट नहीं हुए। सभा में पहुंचे अष्टावक्र को देख सभी लोग हँस दिये क्योंकि उनके सभी अग टेढे थे। अष्टावक ने कहा कि किसी का शरीर देखकर उपाहास नहीं करनी चाहिये। उसका गुण देखना और जनाना चाहिए। जनक जी क्षमा याचना किये। अष्टावक्र जी ने घोड़ा मंगाया।

राजा जनक से कहा कि एक पैर रिकाब में रखिये और मेरा दक्षिणा दीजिए। जनक ने अपना आधा राज और शरीर देने की बातें कहीं। अष्टावक्र ने कहा कि ये दोनो आप के नहीं हैं। आप उपयोगकर्ता है। राज की सपदा प्रकृति और प्रजा की है। शरीर पंचभूत से बना है, जिसपर पत्नी का भी अधिकार है। आप अपना मन, चित्त, बुद्धि और आकार दे दे और घोड़े पर सवार हो जाये। राजा शून्य की स्थिति में हो गये। उन्हें अल्पसमय मै आत्म शाति मिली कि मन पर नियंत्रण से ही आत्म ज्ञान संभव है। मन, चित, बुद्धि और अहंकार के कारण ही संसार के भोग में मानव भटकता है।

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