पत्रकार सुरक्षा कानून से पहले हो आयोग का गठन-प्रीतम भाटिया

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आजादी के बाद पत्रकारों ने क्या खोया और क्या पाया?

जमशेदपुर:देश में पत्रकार सुरक्षा कानून और पत्रकारों के लिए आयोग की मांग कोई नयी बात नहीं है बल्कि पत्रकारों की यह सबसे पुरानी मांग है जिस पर आज तक सरकारें खामोश रहीं.बात चाहे केंद्र सरकार की करें या राज्यों की तो ठोस कदम किसी ने भी नहीं उठाया.

पत्रकार सुरक्षा कानून का मतलब है पत्रकारों की सुरक्षा और संवर्धन दोनों पर एक ऐसा कानून बने जिसे सभी राज्यों को सख्ती से लागू करना पड़े.आजादी के बाद देश में पत्रकारों की रिपोर्ट पर अब तक जनहित में 100 से ज्यादा नये कानून केंद्र और राज्य सरकारों ने बनाएं होंगे लेकिन पत्रकारों को आजादी के बाद क्या मिला?

अगर केंद्र या राज्य सरकारें सच में पत्रकारों की हितैषी हैं तो सबसे पहले पत्रकार आयोग का गठन करें.फिर उन पत्रकार आयोग में वरिष्ठ पत्रकार,रिटायर जज,रिटायर आईपीएस और वरिष्ठ अधिवक्ताओं की नियुक्ति हो.इसके बाद राज्य के सभी पत्रकार संगठनों और क्लबों के अध्यक्ष व महासचिवों के साथ बैठक कर सामूहिक रूप से सुझाव लेकर पत्रकारों की सुरक्षा और संवर्धन हेतु नियमावली बनाई जाए जिसे विधेयक बनाकर पारित कर कानून का रूप दिया जाए.इसके लिए राज्यों में अब तक हुई पत्रकारों की मौत की वजह और उन पर दर्ज प्राथमिकियों का भी अवलोकन किया जाए.

इसके अलावा पत्रकारों को हाऊस और सरकार से मिलने वाली सुविधाओं पर भी मंथन‌ हो क्यों कि सुरक्षा के साथ पत्रकार साथियों का संवर्द्धन भी जरूरी है.पत्रकारों‌ को मिलने वाले वेतन,पीएफ,ईएसआई, एक्रीडेशन,पेंशन और अन्य सुविधाएं ही पत्रकार साथियों के संवर्द्धन का पैमाना है.

देश के विभिन्न राज्यों में आजादी से लेकर अब तक सैकड़ों पत्रकारों की हत्याएं हुई तो सैकड़ों पत्रकार तनाव और बीमारी के कारण भी काल‌ के गाल में समां गए लेकिन क्या कुछ को छोड़ अधिकांश के आश्रितों को पेंशन‌ या मुआवजा मिला?यह एक गंभीर विषय है जिस पर आयोग को रिपोर्ट बनाकर सरकार तक रखनी होगी.

देश में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया है लेकिन क्या राज्यों में हो रही घटनाओं पर वह स्वत: संज्ञान लेता है?क्या हर मामले पर पीसीआई की पैनी नजर रहती है और चंद मामलों को छोड़ आखिर कितनों को अब तक उस संस्था से न्याय मिला है?

ऐसे दर्जनों गंभीर मुद्दे और सवाल हैं जिनका जवाब है पत्रकार सुरक्षा कानून व पत्रकार आयोग का प्रत्येक राज्य में गठन और यही पत्रकार संगठनों की मांग भी है जो चिरकाल से चली आ रही है.

हम झारखंड की ही बात करें तो राज्य के निर्माण काल से लेकर अब तक दर्जनों फर्जी मामले,हमले, हत्याएं और मौतें पत्रकारों की हुईं हैं.मगर कुछ को छोड़ ज्यादातर मामलों में पीड़ित या उनके आश्रितों को न्याय नहीं मिलने का सबसे बड़ा कारण है पत्रकारों के लिए कोई कानून या नियमावली का न बन पाना.

अकेले सिर्फ झारखंड राज्य में विभिन्न जिलों से संचालित एक दर्जन से ज्यादा पत्रकार संगठनों और प्रेस क्लबों ने बीते 24 सालों में विभिन्न पार्टियों की बनी राज्य सरकार को 500 से ज्यादा मांग पत्र अब तक भेजें होंगे जो मुख्यालय और सचिवालय की फाईलों तक ही अग्रसारित होकर न्याय की आस में धूल फांक कर दबी रह गई होंगी.लगातार आंदोलन और दबाव के बाद बमुश्किल कागज़ी कार्रवाई की बाट जोह रहा रघुवर काल का पेंशन और हेमंत काल का सम्मान सुरक्षा कानून बस कागजों तक ही सीमित रह गया.इसका कारण है जिलों और राज्य स्तर पर पत्रकारों का विभिन्न गुटों में बंटा होना और सरकारों का मीडिया के बड़े हाऊस को बड़े-बड़े बजट के विज्ञापनों तक ही खुश‌ रखना.

आज एक पत्रकार की मौत घटना या बीमारी से हो या फिर उस पर हमला हो तो कितने हाऊस उस खबर को लिखते हैं?कितने चैनल उस खबर को दिखाते हैं और कितने संगठन उस पर आंदोलन करते नजर आते हैं?कितने राजनीतिक दलों के नेता,विधायक या सांसद उस मामले को सरकार या फिर विधानसभा और लोकसभा तक लेकर जाते हैं?मेरे विचार से शायद ही इसका जवाब आपको संतोषजनक मिलेगा?

मौका मिले तो कभी इस पर जरूर विचार कर लीजिएगा कि आखिर आजादी के बाद पत्रकारों ने क्या खोया और क्या पाया?

Satyam Jaiswal

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