साहिबगंज: झारखंड के संताल परगना में जनजातीय समाज अब चुप नहीं है। वर्षों से दबे स्वर में कही जाने वाली पीड़ा अब खुले जनआंदोलन का रूप ले चुकी है। साहिबगंज, पाकुड़, राजमहल, गोड्डा और दुमका समेत पूरे संताल क्षेत्र में जनजातीय समाज ने बांग्लादेशी घुसपैठ और जमीन हस्तांतरण के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। गांव-गांव ढोल-नगाड़े और डुगडुगी बजाकर लोगों को जागरूक किया जा रहा है और यह संकल्प दिलाया जा रहा है कि न तो जमीन सौंपी जाएगी और न ही बेटियों के जरिए सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान से समझौता किया जाएगा।
साहिबगंज बना आंदोलन का केंद्र
इस अभियान का केंद्र साहिबगंज जिला बनकर उभरा है। ‘एभेन अखाड़ा जागवार बैसी’ संगठन के नेतृत्व में जनजातीय समाज के लोग सकरीगली, छोटी भगियामारी, संताली टोला, मुस्लिम टोला, बिंद टोला, महलदार टोला सहित कई इलाकों में बैठकों का आयोजन कर रहे हैं। इन बैठकों में बुजुर्गों से लेकर युवा और महिलाएँ तक खुलकर अपनी बात रख रही हैं। आंदोलन का उद्देश्य केवल विरोध दर्ज कराना नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को जमीन और पहचान के महत्व से जोड़ना भी है।
जमीन और बेटियों को लेकर बढ़ी चिंता
स्थानीय जनजातीय समाज का आरोप है कि बीते वर्षों में बांग्लादेशी घुसपैठिए अवैध रूप से क्षेत्र में बसते गए। शुरुआत में यह प्रक्रिया धीमी रही, लेकिन अब हालात ऐसे हैं कि कई गाँवों में जनजातीय समाज अपने ही इलाकों में अल्पसंख्यक होता जा रहा है। ग्रामीणों का कहना है कि जमीन पर कब्जे के लिए योजनाबद्ध तरीके अपनाए गए, कहीं शादी के जरिए, तो कहीं फर्जी दस्तावेजों के सहारे।
इसी पृष्ठभूमि में समाज ने यह फैसला लिया है कि अब गैर-जनजातीय समाज में बेटियों की शादी नहीं होने दी जाएगी। उनका कहना है कि कुछ मामलों में विवाह के बाद जमीन हड़प ली गई और सांस्कृतिक-धार्मिक दबाव भी बनाया गया। जनजातीय समाज इसे सिर्फ व्यक्तिगत घटनाएँ नहीं, बल्कि संगठित साजिश के रूप में देख रहा है।
फर्जी दस्तावेजों के आरोप
ग्रामीणों का आरोप है कि कई घुसपैठिए फर्जी आधार कार्ड, राशन कार्ड और वोटर आईडी के जरिए सरकारी योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं। मोतीहारना जैसे इलाकों में जनजातीय जमीन पर पूरी बस्तियाँ बसने का दावा भी किया जा रहा है। इसी को लेकर कई लोगों ने तालझारी थाने में आवेदन देकर जांच और कार्रवाई की मांग की है। ग्रामीण उपायुक्त से मिलने की तैयारी भी चल रही है।
CNT-SPT कानून और बदलता सामाजिक स्वरूप
जनजातीय समाज का कहना है कि CNT और SPT जैसे कानूनों का मकसद ही था कि उनकी जमीन गैर-जनजातीय हाथों में न जाए। इसके बावजूद जमीनों के ट्रांसफर हुए, नाम बदले गए और धीरे-धीरे गांवों का सामाजिक स्वरूप बदलता चला गया। अब इसे केवल जमीन विवाद नहीं, बल्कि सुनियोजित डेमोग्राफिक बदलाव के रूप में देखा जा रहा है।
अफीम की खेती और हाई कोर्ट का हस्तक्षेप
स्थिति की गंभीरता तब और सामने आई जब संथाल परगना के कई इलाकों में अफीम की खेती और तस्करी के आरोप लगे। इन मामलों को लेकर दायर जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए वर्ष 2024 में झारखंड हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को बांग्लादेशी घुसपैठियों की पहचान कर कार्रवाई के निर्देश दिए। कोर्ट के आदेश के बाद साहिबगंज के डिप्टी कलेक्टर ने जांच समिति का गठन भी किया।
हालांकि, स्थानीय लोगों का कहना है कि समितियां और आदेश तभी कारगर होंगे जब जमीन पर ठोस कार्रवाई नजर आएगी। मामला अब भी अदालत में लंबित है, और इसी कारण जनजातीय समाज ने खुद संगठित होकर खड़ा होने का फैसला किया है।
जनआंदोलन का संदेश
संथाल परगना में उठी यह आवाज केवल विरोध नहीं, बल्कि अस्तित्व और पहचान बचाने की लड़ाई है। जनजातीय समाज साफ कह रहा है कि जमीन उनके लिए सिर्फ संपत्ति नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और जीवन पद्धति की नींव है। प्रशासन और न्यायिक प्रक्रिया पर नजरें टिकी हैं, लेकिन फिलहाल गांव-गांव गूंजती डुगडुगी इस बात का संकेत है कि जनजातीय समाज अब अपने हक के लिए खुद मैदान में उतर चुका है।
संताल परगना में जनजातीय समाज का उभार: जमीन और पहचान बचाने के लिए गांव-गांव चल रहा जागरूकता अभियान











