अपार धन संपदा रहते हुए भी जो संतुष्ट नहीं है, तो समझिए वह दरिद्र है:- श्री जीयर स्वामी

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शुभम जायसवाल

श्री बंशीधर नगर गढ़वा):– पूज्य संत श्री जीयर स्वामी जी महाराज ने प्रवचन करते हुए कहा कि सुख की अंतिम सात संतुष्टि है। और किसी के पास अपार धन होते हुए भी वह संतुष्ट नहीं है तो समझिये कि वह दरिद्र है।संसार की सत्ता बाधक नहीं है, प्रत्युत उसकी महत्ता का असर बाधक है। महत्ता का असर होने से गुलामी आ जाती है।संसार का संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है । नित्य को स्वीकार करना मनुष्यका कर्तव्य है।संसारकी जिन वस्तुओं को हम बड़ा महत्त्व देते हैं, उनका काम यही है कि वे हमें परमात्मप्राप्ति नहीं होने देंगी और खुद भी नहीं रहेंगी ! संसार असत्य हो अथवा सत्य हो, पर उसके साथ हमारा सम्बन्ध असत्य है – यह निःसन्देह बात है।

यह संसार मेंहदी के पत्तेकी तरह ऊपरसे हरा दीखता है, पर इसके भीतर परमात्मरूप लाली परिपूर्ण है।हम स्वयं चेतन तथा अविनाशी हैं और सांसारिक वस्तुएँ जड़ तथा विनाशी हैं। दोनों की जाति अलग-अलग है। फिर दूसरी जाति की वस्तु हमें कैसे मिल सकती है? जैसे उदय होने के बाद सूर्य निरन्तर अस्त की ओर ही जाता है, ऐसे ही उत्पन्न होने के बाद मात्र संसार निरन्तर अभाव की ओर ही जा रहा है।संसार विजातीय है और विजातीय वस्तु से सम्बन्ध होता ही नहीं, केवल सम्बन्ध की मान्यता होती है।

सम्बन्ध की मान्यता ही अनर्थ का हेतु है, जिसके मिटते ही मुक्ति स्वतः सिद्ध है।शरीर संसारका निरन्तर परिवर्तन हमें यह क्रियात्मक उपदेश दे रहा है कि तुम्हारा सम्बन्ध अपरिवर्तनशील तत्त्व (परमात्मा) के साथ है, हमारे साथ नहीं; हम तुम्हारे साथ और तुम हमारे साथ नहीं रह सकते।अभी जो वस्तुएँ व्यक्ति आदि हमारे पास हैं, उनका साथ कब तक रहेगा – इसपर हरेक को विचार करने की जरूरत है।हम शरीरको रखना चाहते हैं, सुख- आराम चाहते हैं, अपने मनकी बात पूरी करना चाहते हैं – यह सब असत्‌ का आश्रय है।जो किसी समय है और किसी समय नहीं है, कहीं है और कहीं नहीं है, किसी में है और किसी में नहीं है, किसी का है और किसी का नहीं है, वह वास्तव में है ही नहीं।वस्तु और व्यक्ति तो नहीं रहते, पर उनसे माना हुआ सम्बन्ध बना रहता है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही जन्म-मरण का कारण होता है।सब संसार अपनी धुन में जा रहा है। हम ही उसको (जाते हुएको) पकड़ते हैं और फिर उसके छूटने पर रोते हैं।

जो संसार की गरज नहीं करता, उस की गरज संसार करता है। परन्तु जो संसार की गरज करता है, उसको संसार चूसकर फेंक देता है! मनुष्य जब तक सांसारिक पदार्थों का सम्बन्ध रखेगा और उनकी आवश्यकता समझेगा, तब तक वह कभी सुखी नहीं होगा। संसार को सत्ता देने से संयोग-वियोग होते हैं और महत्ता देने से सुख-दुःख होते हैं। नाशवान् की दासता ही अविनाशी के सम्मुख नहीं होने देती।

संसार की सामग्री संसारके काम की है, अपने काम की नहीं।संसार विश्वास करने योग्य नहीं है, प्रत्युत सेवा करनेयोग्य है।नाशवान् में अपनापन अशान्ति और बन्धन देनेवाला है। असत्को असत् जानने पर भी जब तक असत्का आकर्षण नहीं मिट जाता, तब तक सत्की प्राप्ति नहीं होती (जैसे, सिनेमाको असत्य जानने पर भी उसका आकर्षण रहता है)।

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