श्री कृष्ण को अपना सखा बना लो, पूरा ब्रम्हांड तुम्हारा अपना हो जायगा :- श्री जीयर स्वामी

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शुभम जायसवाल


श्री बंशीधर नगर गढ़वा:– पूज्य संत श्री श्री 1008 श्री लक्ष्मी प्रपन्न श्री जियर स्वामी जी महाराज ने कहा कि संत और भक्त वही है जिसे भगवान का सगुण साक्षात्कार हुआ हो। भोजन के बिना तृप्ति कहाँ ?भगवान् आलिङ्गन देकर प्रीतिसे इन अङ्गों को शान्त करेंगे और अमृतकी दृष्टि डालकर मेरे जी को ठंडा करेंगे। गोद में उठा लेंगे और भूख-प्यास भी पूछेंगे और पीताम्बर से मेरा मुँह पोंछेंगे। प्रेमसे मेरी ओर देखते हुए मेरी ठुड्डी पकड़ कर मुझे सान्त्वना देंगे। मेरे माँ-बाप हे विश्वम्भर अब ऐसी ही कुछ कृपा करो ! मेरे माँ-बाप ! मुझे प्रत्यक्ष बनकर दिखाइये। आँखों से देख लूँगा तब तुमसे बात चीत भी करूँगा, चरणों में लिपट जाऊँगा। फिर चरणों में दृष्टि लगाकर हाथ जोड़कर सामने खड़ा रहूँगा। यही मेरी उत्कट वासना है। नारायण ! मेरी यह कामना पूरी करो। परनिन्दा में बड़ी रुचि थी, दूसरों की खूब निन्दा की। परोपकार न मैंने किया; न दूसरों से कभी कराया । दूसरों को पीड़ा पहुँचाने में कभी दया न आयी।

ऐसा व्यवसाय किया जो न करना चाहिये और उससे पाया तो क्या, अपने कुटुम्ब का भार ढोता फिरा। तीर्थों की कभी यात्रा नहीं की, केवल इस पिण्ड के पालन करने में ही हाथ-पैर मारता रहा। मुझसे न संत-सेवा बनी, न दान-पुण्य बना, न भगवान्की मूर्तिका दर्शन और पूजन-अर्चन ही बना। कुसङ्ग में पड़कर अनेक अन्याय और अधर्म किये। मैंने अपना-आप ही सत्यानाश किया, मैं अपना- आप ही वैरी बना। भगवन् ! तुम दया के निधान हो, मुझे इस भवसागर के पार उतारो !

भवसागर को तैर कर पार करते हुए चिन्ता किस बात की करते हो ? उस पार तो ‘वह’ कटिपर कर धरे खड़े हैं। जो कुछ चाहते हो उसके वही तो दाता हैं। उनके चरणों में जाकर लिपट जाओ ! वह जगत्स्वामी तुमसे कोई मोल नहीं लेंगे, केवल तुम्हारी भक्ति से ही तुम्हें अपने कंधे पर उठा ले जायँगे। प्रभु जहाँ प्रसन्न हुए तहाँ भुक्ति और मुक्ति की चिन्ता क्या ? वहाँ दैन्य और दारिद्र्य कहाँ ?संसारमें बने रहो, पर हरिको न भूलो। हरिनाम जपते हुए न्याय-नीतिसे सब काम करते चलो। इससे संसार भी सुखद होता है।

सुख – जव बराबर है तो दुःख पहाड़-बराबर । संसारके विषयमें सब का यही अनुभव है। माँ-बाप, स्त्री-पुत्र, संगी-साथी, धन-दौलत, राजा-महाराजा कोई भी हमें क्या मृत्यु से बचा सकता है ? यह शरीर तो काल का कलेवा है।कौड़ी – कौड़ी जोड़कर करोड़ रुपये इकट्ठे करो, पर साथ तो एक लँगोटी भी न जायेगी। संगी-साथी एक-एक करके चले । अब तुम्हारी भी बारी आवेगी। पैरों तक वनमाला लटक रही है, उन सुन्दर मधुर घनश्याम को देखते हुए नेत्रोंसे मानों प्राण निकल पड़ते हैं ।श्रीकृष्ण लीलाविग्रह हैं, उनका शरीर लोकाभिराम और ध्यान-धारण मङ्गलप्रद हैं । वेदोंका जन्मस्थान, षट्शास्त्रोंका समाधान, षड्दर्शनोंकी पहेली—ऐसा यह श्रीकृष्णका पूर्णावतार है।

भक्ति का रहस्य जानना हो तो आओ, श्रीवृन्दावन – लीलाका आश्रय करो ।चारों वेद जिसकी कीर्ति बखानते हैं, योगियों के ध्यान में जो एक क्षणभर के लिये भी नहीं आता, वह ग्वालिनोंके हाथ बँध जाता है, भावुक ग्वालिनें उसे पकड़ रखती हैं । इन भक्तिनोंके पास वह गिड़गिड़ाता हुआ आता है और सयाने कहते हैं कि वह तो मिलता ही नहीं ।इन भोरी अहीरिनों के पूर्वपुण्यका हिसाब कौन लगा सकता है, जिन्होंने मुरारि को खेलाया- अन्तः सुख से खेलाया और बाह्यसुखसे भी उन्हें पाकर अपनेको अर्पण कर दिया । भगवान्ने उन्हें अन्तःसुख दिया, जिन्होंने एकनिष्ठ भाव से उन्हें जाना।

श्रीकृष्ण में जिनका तन-मन लग गया, जो घर-द्वार और पति-पुत्रतकको भूल गयी, जिनके लिये धन, मान और स्वजन विष से हो गये, वे एकान्तवन में भगवान्‌के साथ जा मिलीं । देह की सारी भावना, सारी सुध-बुध बिसार दी; तब वही नारायण की सम्पूर्ण पूजा-अर्चा है । ऐसे भक्तोंकी पूजा भगवान्, भक्तोंके जाने बिना ले लेते हैं और उनके माँगे बिना उन्हें अपना ठाँव दे देते हैं ।उन ग्वालिनोंका भी कैसा महान् पुण्य था, वे गाय, बछड़े और अन्य पशु भी कैसे भाग्यवान् थे। ग्वालिनोंको जो सुख मिला वह दूसरोंके लिये, ब्रह्मादि के लिये भी दुर्लभ है। गोपियाँ रास – रंगमें समरस हुईं, उसी प्रकार हमारी चित्त-वृत्तियाँ श्रीकृष्ण प्रेम में सराबोर हो जायँ।

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