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शुभम जायसवाल


श्री बंशीधर नगर (गढ़वा):- पूज्य संत श्री श्री 1008 श्री लक्ष्मी प्रपन्न जियर स्वामी जी महाराज ने कहा कि संसारमें न तो कोई किसीका मित्र है, न शत्रु है मनुष्य किसीको अपना शत्रु मानकर उसपर क्रोध करते हैं; वे वास्तव में अपनी ही हानि करते हैं। संसार विष्णुमय है। शरीरका एक अङ्ग दूसरे अङ्गका शत्रु कैसे हो सकता है ?भगवान्की कथामें श्रद्धा करे, भगवान्‌की प्रतिमाको पूजा करे, भगवान्‌का स्मरण करे, भगवान्‌के ही चरणकमलोंमें रिश झुकावे, भगवान्‌को ही संसारमें सबसे बड़ा साथी माने, भगवान्का हो सेवक बने और भगवान् के ही चरणकमलोंमें सम्पूर्णरूपसे आत्मसमर्पण कर दे । जो पुरुष इस प्रकार भगवान्‌की भक्ति करते हैं, वे इस असार संसारके बन्धनसे मुक्त होकर परमपद पाते हैं।तुम परमेश्वर और भोग दोनोंकी सेवा नहीं कर सकते। विषय न बटोरो । कलके लिये चिन्ता न करो। कल अपनी चिन्ता आप करेगा । सदा स्मरण करनेयोग्य तो एक ही वस्तु है । सदा सर्वदा सर्वत्र श्रीकृष्ण के सुन्दर नामके स्मरणमात्र से ही प्राणिमात्रका कल्याण हो सकता है।

रे मनुष्य ! तू दीन होकर घर-घर क्यों भटकता है। तेरा पेट तो सेर भर आटे से ही भर जाता है। भगवान् तो उस समुद्र को भी भोजन पहुँचाते हैं जिसका शरीर चार सौ कोस लम्बा-चौड़ा है। संसारमें कोई भूखा नही रहता । चीटीं और हाथी सभीका पेट भगवान् भरते हैं। अरे मूर्ख ! तू विश्वास क्यों नहीं करता ।शोक, मोह, दुःख-सुख और देहकी उत्पत्ति सब मायाके ही कार्य हैं और यह संसार भी स्वप्न के समान बुद्धिका ही विकार है। इसमें वास्तविकता कुछ भी नहीं है। एक भगवान् ही सत्य हैं। शरीर और मन, बुद्धि को जीता हुआ अपरिग्रही, निराशी मनुष्य शरीरसम्बन्धी कर्म करता हुआ भी पापोंको प्राप्त नहीं होता।

सुख-दुःख, हानि-लाभ आदि द्वन्द्वोंमें फँसे हुए जीवोंमें जो मनुष्य हर्ष, शोकरहित होकर विचरण करता है, वही तृप्त है।मैं न राज्य चाहता हूँ, न स्वर्ग चाहता हूँ और न मोक्ष ही चाहता हूँ। मैं दुःखपीड़ित प्राणियोंके दुःखका नाश चाहता हूँ । मैं परमेश्वरसे आठ सिद्धियोंवाली उत्तम गति या भक्तिनहीं चाहता, मैं केवल यही चाहता हूँ कि समस्त देहधारियोंके अन्तःकरणमें स्थित होकर उनके कष्टोंको भोगूँ, जिससे उन्हें कष्ट न हो ।लोभ, दीनता, भय और धन आदि किसी भी कारणसे मैं अपना धर्म नहीं छोड़ सकता — यह मेरा दृढ़ निश्चय है।

धर्मपालन में बहानेबाजी कभी नहीं करनी चाहिये, मैंने सत्य से हीं सब शस्त्र प्राप्त किये हैं। मैं सत्य से कभी नहीं डिग सकता ।श्रीहरि के चरणोंकी सेवा मनुष्योंको स्वर्ग, मोक्ष, इस लोककी महान् सम्पत्ति और सब प्रकारकी सिद्धियोंको देने वाली है। भगवान् की पूजा छोड़कर जो लोग दूसरे की पूजा करते हैं, वे महामूर्ख हैं। जहाँ ‘मैं’, – ‘मैं’ और ‘मेरा’ इन दो शब्दों में ही सारे जगत्के दुःख भरे ‘मेरा’ नहीं है वहाँ दुःखों का अत्यन्त अभाव है। जिस वस्तु के नाश से बड़ा दुःख होता है, उसके प्राप्त होने से पूर्व सुख या दुःख कुछ भी नहीं होता। अतएव उसकी प्राप्तिके पूर्वकी अवस्थाको ध्यान में रखकर मनको दुखी नहीं करना चाहिये ।

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