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शुभम जायसवाल

श्री बंशीधर नगर (गढ़वा):– पूज्य संत श्री श्री 1008 श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने श्रीमद् भागवत कथा के दौरान कहा कि विचार करो, जिससे आप सुख चाहते हैं, क्या वह सर्वथा सुखी है? क्या वह दुःखी नहीं है? दुःखी व्यक्ति आपको सुखी कैसे बना देगा? कामना छूटने से जो सुख होता है, वह सुख कामना की पूर्तिसे कभी नहीं होता।परमात्मा की उत्कट अभिलाषा चाहते हो तो संसारकी अभिलाषाको छोड़ो।जो संसार की इच्छा करता है, उससे सुख लेता है, वह भी बदलता रहता है अर्थात् अनेक योनियों में जन्मता – मरता रहता है। जिसको हम सदा के लिये अपने पास नहीं रख सकते, उसकी इच्छा करने से और उसको पाने से भी क्या लाभ? कामना के कारण ही कमी है। कामना से रहित होने पर कोई कमी बाकी नहीं रहेगी।

कामना का सर्वथा त्याग कर दें तो आवश्यक वस्तुएँ स्वतः प्राप्त होंगी; क्योंकि वस्तुएँ निष्काम पुरुषके पास आनेके लिये लालायित रहती हैं। जो अपने सुख के लिये वस्तुओं की इच्छा करता है, उसको वस्तुओं के अभावका दुःख भोगना ही पड़ेगा। कामना न कर के अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। जैसा मैं चाहूँ, वैसा हो जाय- यह इच्छा जब तक रहेगी, तब तक शान्ति नहीं मिल सकती।निन्दा इसलिये बुरी लगती है कि हम प्रशंसा चाहते हैं। हम प्रशंसा चाहते हैं तो वास्तव में हम प्रशंसा के योग्य नहीं हैं; क्योंकि जो प्रशंसा के योग्य होता है, उसमें प्रशंसा की चाहना नहीं रहती।मनुष्य समझदार होकर भी उत्पत्ति – विनाशशील वस्तुओं को चाहता है – यह आश्चर्य की बात है! शरीरमें अपनी स्थिति मानने से ही नाशवान् की इच्छा होती है और इच्छा होनेसे ही शरीर में अपनी स्थिति दृढ़ होती है।कुछ चाहने से कुछ मिलता है और कुछ नहीं मिलता; परन्तु कुछ न चाहने से सब कुछ मिलता है।

दूसरों से अच्छा कहलाने की इच्छा बहुत बड़ी निर्बलता है।इसलिये अच्छे बनो, अच्छे कहलाओ मत।सांसारिक सुखकी इच्छाका त्याग कभी-न-कभी तो करना ही पड़ेगा तो फिर देरी क्यों ? जहाँ तंक बने, दूसरों की आशापूर्ति का उद्योग करो, पर दूसरोंसे आशा मत रखो।मनुष्यको कर्मों का त्याग नहीं करना है, प्रत्युत कामना का त्याग करना है।मनुष्य को वस्तु गुलाम नहीं बनाती, उसकी इच्छा गुलाम बनाती है।यदि शान्ति चाहते हो तो कामनाका त्याग करो।कुछ भी लेनेकी इच्छा भयंकर दुःख देनेवाली है।जिसके भीतर इच्छा है, उसको किसी-न-किसीके पराधीन होना ही पड़ेगा।अपने लिये सुख चाहना आसुरी, राक्षसी वृत्ति है।जैसे बिना चाहे सांसारिक दुःख मिलता है, ऐसे ही बिना चाहे सुख भी मिलता है। अतः साधक सांसारिक सुखकी इच्छा कभी न करे। भोग और संग्रह की इच्छा सिवाय पाप कराने के और कुछ काम नहीं आती।

अतः इस इच्छाका त्याग कर देना चाहिये।अपने लिये भोग और संग्रहकी इच्छा करनेसे मनुष्य पशुओंसे भी नीचे गिर जाता है तथा इसकी इच्छाका त्याग करनेसे देवताओंसे भी ऊँचे उठ जाता है ।जीवन तभी कष्टमय होता है, जब संयोगजन्य सुखकी इच्छा करते हैं और मृत्यु तभी कष्टमयी होती है, जब जीनेकी इच्छा करते हैं।यदि वस्तुकी इच्छा पूरी होती हो तो उसे पूरी करनेका प्रयत्न करते और यदि जीनेकी इच्छा पूरी होती हो तो मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते । परन्तु इच्छाके अनुसार न तो सब वस्तुएँ मिलती हैं और न मृत्युसे बचाव ही होता है।इच्छाका त्याग करनेमें सब स्वतन्त्र हैं, कोई पराधीन नहीं है और इच्छा की पूर्ति करने में सब पराधीन हैं, कोई स्वतन्त्र नहीं है।सुख की इच्छा, आशा और भोग- ये तीनों सम्पूर्ण दुःखों के कारण हैं।

नाशवान् की चाहना छोड़ने से अविनाशी तत्त्वकी प्राप्ति होती है।ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये – इसीमें सब दुःख भरे हुए हैं।हमारा सम्मान हो— इस चाहना ने ही हमारा अपमान किया है। नाशवान् की इच्छा ही अन्तःकरण की अशुद्धि है मनमें किसी वस्तु की अधिक चाह रखना ही दरिद्रता है। हमेशा लेने की इच्छा करने वाला सदा दरिद्र ही रहता है।