जो मनुष्य जीवन में शांति चाहता है वह कामना का त्याग करें : जियर स्वामी

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शुभम जयसवाल

श्री बंशीधर नगर (गढ़वा):– पूज्य संत श्री श्री 1008 श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने श्रीमद् भागवत कथा सुनाते हुए कहा कि हम जगत् की व्यवस्था में लगें ,परंतु अपने मृत्यु और काल को याद करना चाहिए।उन्होंने बताया कि शास्त्रकार बताते हैं कि हम चाहें कुछ भी जगत् की व्यवस्था में लगें परंतु अपने मृत्यु और काल को याद करना चाहिए। जो व्यक्ति मृत्यु और काल को हमेशा याद करता है वह व्यक्ति इस संसार में रहकर भी संसार के अवस्थाओं से, संसार की दशाओं से, संसार की व्यवस्थाओं में लिप्त नही होता। जब हम काल और मृत्यु को भूल जाते हैं तब हम इस संसार में रह करके अपने को अंहकार में हो करके अपने को स्वयं अनीति, अन्याय, कुकर्म, उपद्रव की हम जननी बन जाते हैं, अधिकारी बन जातें हैं। इसलिए मनुष्य को यह बार बार यह जानना चाहिए की मृत्यु हमारी चोटी को पकड़ा हुआ है। कब इसके गाल में चले जाएंगे इसका कोई ठीक नही है।

कर्म करते हुए फल की कामना नही करना चाहिए। कर्म तो करना चाहिए लेकिन फल रहित होकर करना चाहिए। इसमें आत्म शांति मिलेगा। यदि नही भी फल की कामना करेंगे और अच्छे कर्म करेंगे तो फल हमें ही प्राप्त होगा। कामना रहित हो करके यदि कर्म करते हैं तो उसमें बहुत आनंद आता है। उसमें टेंशन, अटेंशन की संभावना नही रहती है। कामना लेकर कोई काम करते हैं तो थोड़ा टेंशन, डिप्रेशन, शोक और कहीं भटकाव की संभावना बनी रहती है। जो जीवन में शांति चाहता है वह कामना का त्याग  करे। इससे हर पल, हर क्षण हमें शांति ही शांति है। आशा और कामना हमें उस फांसी पर हमे लटका देती है, उस सूली पर लटका देती है जब तक प्राण, जब तक स्वास रहता है तब तक हम कुछ कर हीं नही पाते। हमेशा संशय में रहते हैं। मनोरथ कभी समापन नही होती है। जाने अनजाने में अगर कोई पाप होता है तो संत के पास एवं तीर्थ में जाकर उसका मार्जन किया जा सकता है लेकिन तीर्थ और संतो के यहाँ किये गये अपराध का मार्जन संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि भक्ति और भगवान के आश्रय में रहकर सुकर्म करते हुए अपने अपराधों के प्रभाव को कम किया जा सकता है, लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता है। बारिश में छाता या बरसाती से आँधी में दिये को शीशा से बचाव किया जा सकता है, लेकिन बारिश एवं आँधी को रोका नहीं जा सकता है। भक्ति और सत्कर्म का प्रभाव यही होता है। प्रारब्ध या होनी का समूल नाश नहीं होता। प्रारब्ध का भोग भोगना ही पड़ता है। शास्त्रों में कहा गया है कि प्रारब्ध अवश्यमेव भोक्तव्यम्। ईश्वर की भक्ति अथवा संत-सद्गुरू प्रारब्ध की तीक्ष्णता को कम किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति के भाग्य में उसके पिछले जन्मों के कुकर्मो के कारण शूली पर चढ़ना लिखा है, तो इस जन्म के ईश्वर-भक्ति या गुरू की कृपा से प्रारब्ध की शूली शूल का रूप ले सकती है। प्रारब्ध को मिटाया नहीं जा सकता, उसके प्रभाव को कम किया जा सकता है।

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