शुभम जायसवाल
श्री बंशीधर नगर (गढ़वा):— साधन-संसाधन का उपयोग संस्कार, संस्कृति और धर्म के अनुसार होनी चाहिए। साधन और संसाधन का दुरुपयोग कतई नहीं होनी चाहिए। इनके उपयोग से धन, वैभव और प्रतिष्ठा बढ़ती है जबकि दुरुपयोग से धन ओर प्रतिष्ठा की हानि होती है। अपने साधन-संसाधन का दुरुपयोग करने वाले को समाज हेय भाव से देखता है। श्रीमद् भागवत महापुराण कथा में आत्मदेव और उनकी पत्नी धुंधली के प्रसंग की चर्चा करते हुए स्वामी जी ने कहा कि गृहस्थ आश्रम पुत्र होना चाहिए लेकिन मैं पुत्र प्राप्ति नहीं होने पर जीवन निरर्थक नहीं समझना चाहिए। उन्होंने पाप की चर्चा करते हुए कहा कि जाने अनजाने में हुए पाप का सत् संकल्प से मार्जन संभव है, लेकिन दुराग्रह के साथ किए गए पापों को अवश्य भोगना है। लोभ पाप का जन्मदाता है। जो मनुष्य रात-दिन पाप करता हो, निरंतर दुराचार सान्निध्य का संस्मरण करता हो और क्रोध की अग्नि में जलता हो, उसका भी उद्धार संभव है, बशर्ते वह सत सकल्प के साथ भागवत कथा का श्रवण करे और पुनः पाप न करे।

साधन-संसाधन का उपयोग करें, उपभोग नहीं – जीयर स्वामी
भागवत कथा अनुष्ठान से सुनने पर कल्याण होता है। कथा सुनने के समय संसारिकता से अलग एकाग्रचित्त होने पर फल प्राप्ति होती है। भगवान की कृपा होने पर पति-पत्नी में मधुरता रहती है। यदि पत्नी कर्कशा हो और घर में बच्चों की किलकारी भी नहीं हो, तो सुख-शांति नहीं रहती । उन्होंने कहा कि जो पाप दुराग्रह के साथ हो, वह महापाप है। ब्राह्मण, गाय, परिजन और महापुरुषों की हत्या और विश्वासी के साथ विश्वासघात करना महापाप की श्रेणी में आता है।
