यह संसार मेंहदी के पत्ते की तरह ऊपर से हरा दीखता है,पर इसके भीतर परमात्मरूप लाली परिपूर्ण है:- जीयर स्वामी जी महाराज

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शुभम जायसवाल


श्री बंशीधर नगर (गढ़वा):– पूज्य संत श्री श्री 1008 श्री लक्ष्मी प्रपन्न जियर स्वामी जी महाराज ने श्रीमद् भागवत कथा के दौरान कहा कि संसार की सत्ता बाधक नहीं है, प्रत्युत उसकी महत्ता का असर बाधक है। महत्ता का असर होनेसे गुलामी आ जाती है। संसार का संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है। नित्यको स्वीकार करना मनुष्यका कर्तव्य है।संसारकी जिन वस्तुओंको हम बड़ा महत्त्व देते हैं, उनका काम यही है कि वे हमें परमात्मप्राप्ति नहीं होने देंगी और खुद भी नहीं रहेंगी ! संसार असत्य हो अथवा सत्य हो, पर उसके साथ हमारा सम्बन्ध असत्य है – यह निःसन्देह बात है।यह संसार मेंहदीके पत्तेकी तरह ऊपरसे हरा दीखता है, पर इसके भीतर परमात्मरूप लाली परिपूर्ण है।हम स्वयं चेतन तथा अविनाशी हैं और सांसारिक वस्तुएँ जड़ तथा विनाशी हैं। दोनों की जाति अलग-अलग है। फिर दूसरी जातिकी वस्तु हमें कैसे मिल सकती है?

जैसे उदय होने के बाद सूर्य निरन्तर अस्तकी ओर ही जाता है, ऐसे ही उत्पन्न होनेके बाद मात्र संसार निरन्तर अभावकी ओर ही जा रहा है।संसार विजातीय है और विजातीय वस्तुसे सम्बन्ध होता ही नहीं, केवल सम्बन्धकी मान्यता होती है। सम्बन्धकी मान्यता ही अनर्थका हेतु है, जिसके मिटते ही मुक्ति स्वतः सिद्ध है।शरीरसंसारका निरन्तर परिवर्तन हमें यह क्रियात्मक उपदेश दे रहा है कि तुम्हारा सम्बन्ध अपरिवर्तनशील तत्त्व (परमात्मा) के साथ है, हमारे साथ नहीं; हम तुम्हारे साथ और तुम हमारे साथ नहीं रह सकते।

अभी जो वस्तुएँ व्यक्ति आदि हमारे पास हैं, उनका साथ कबतक रहेगा – इसपर हरेकको विचार करनेकी जरूरत है।हम शरीरको रखना चाहते हैं, सुख- आराम चाहते हैं, अपने मनकी बात पूरी करना चाहते हैं – यह सब असत्‌का आश्रय है।जो किसी समय है और किसी समय नहीं है, कहीं है और कहीं नहीं है, किसीमें है और किसीमें नहीं है, किसीका है और किसीका नहीं है, वह वास्तवमें है ही नहीं।वस्तु और व्यक्ति तो नहीं रहते, पर उनसे माना हुआ सम्बन्ध बना रहता है। यह माना हुआ सम्बन्ध ही जन्म-मरणका कारण होता है।

सब संसार अपनी धुनमें जा रहा है। हम ही उसको (जाते हुएको) पकड़ते हैं और फिर उसके छूटनेपर रोते हैं।जो संसारकी गरज नहीं करता, उसकी गरज संसार करता है। परन्तु जो संसारकी गरज करता है, उसको संसार चूसकर फेंक देता है! मनुष्य जबतक सांसारिक पदार्थोंका सम्बन्ध रखेगा और उनकी आवश्यकता समझेगा, तबतक वह कभी सुखी नहीं होगा।संसारको सत्ता देनेसे संयोग-वियोग होते हैं और महत्ता देनेसे सुख-दुःख होते हैं।

नाशवान्की दासता ही अविनाशीके सम्मुख नहीं होने देती। संसारकी सामग्री संसारके कामकी है, अपने कामकी नहीं।संसार विश्वास करनेयोग्य नहीं है, प्रत्युत सेवा करनेयोग्य है।नाशवान्में अपनापन अशान्ति और बन्धन देनेवाला है।

असत्को असत् जाननेपर भी जबतक असत्का आकर्षण नहीं मिट जाता, तबतक सत्की प्राप्ति नहीं होती (जैसे, सिनेमाको असत्य जाननेपर भी उसका आकर्षण रहता है)।

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