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शुभम जायसवाल

श्री बंशीधर नगर (गढ़वा) :– पूज्य संत श्री श्री 1008 श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज ने बुधवार को श्रीमद् भागवत कथा के दौरान को कहा की अत्यधिक सम्पति और संसाधन के लिए न करें अपराध। भगवान की मूर्ति को अपलक निहारते हुए लगाएं ध्यान। जीवन निर्वहन के क्रम में अपनी आवश्यकताओं को कम करते हुए न्यूनतम साधन एवं संसाधनों का उपयोग करना चाहिए। इसी में स्वहित एवं राष्ट्रहित समाहित है। वस्तुओं का अत्यधिक मात्रा में उपयोग से उनका दुरूपयोग होता है, श्री स्वामी जी ने कहा कि खाली पात्र में ही जल या वस्तु डाली जा सकती है। भरे हुए पात्र में कुछ डालने पर वह गिरने लगता है।

उसी तरह अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं को जरूर पूर्ति करनी चाहिए, लेकिन विलासितापूर्ण जीवन जीने के लिए अनीति अत्याचार से धन नहीं जुटाना चाहिए। समाज में ऐसे -कभी दूध पीना छोड़कर माता को अपलक निहारने लगता है। स्वामी जी ने कहा कि मुक्ति पाँच तरह की होती है। भगवान के लोक में रहना सालोक्य मुक्ति, भगवान के पास रहना सामीप्य मुक्ति, भगवान के समान रूप बनाना सारूप्य मुक्ति, भगवान के समान सृष्टि का अधिकारी सासृष्ट मुक्ति और भगवान में अपने को विलय करना सायुज्य मुक्ति कहलाता हैं। इन मुक्तियों के अधिकारी भी भगवान के अधीन रहते हैं।

भक्ति योगः जिस व्यवहार, आचरण और कर्म से भगवान के प्रति निष्ठा हो जाए वही भक्ति है।

एकान्त मिले या समुदाय मिले, साधक को अपना साधन किसी परिस्थिति के अधीन नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत प्राप्त परिस्थिति के अनुसार अपना साधन बनाना चाहिये। एकान्त की इच्छा करने वाला परिस्थिति के अधीन होता है। जो परिस्थिति के अधीन होता है, वह भोगी होता है, योगी नहीं।साधक का न तो जन-समुदाय में राग होना चाहिये, न एकान्त में।

कल्याण परिस्थिति से नहीं होता, प्रत्युत रागरहित होनेसे होता है।निर्जन-स्थान में चले जाने को अथवा अकेले पड़े रहने को एकान्त मान लेना भूल है; क्योंकि सम्पूर्ण संसारका बीज यह शरीर तो साथ में है ही। जबतक शरीर के साथ सम्बन्ध है, तबतक सम्पूर्ण संसारके साथ सम्बन्ध बना हुआ है। शरीर भी संसार का ही एक अंग है। अतः शरीर से सम्बन्ध – विच्छेद होना अर्थात् उसमें अहंता- ममता न रहना ही वास्तविक एकान्त है। साधक में एकान्त-सेवन की रुचि होनी तो बढ़िया है, पर उसका आग्रह (राग) होना बढ़िया नहीं है।

आग्रह होने से एकान्त न मिलने पर अन्त:करण में हलचल होगी, जिससे संसारकी महत्ता दृढ़ होगी। मनुष्य प्रत्येक परिस्थिति में अपने कर्तव्य का पालन कर सकता है। कर्तव्य का यथार्थ स्वरूप है – सेवा अर्थात् संसार से मिले हुए शरीरादि पदार्थों को संसार के हित में लगाना। अपने कर्तव्यका पालन करने वाले मनुष्य के चित्त में स्वाभाविक प्रसन्नता रहती है। इसके विपरीत अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले मनुष्य के चित्त में स्वाभाविक खिन्नता रहती है