श्री बंशीधर नगर: कथा सुनने का मतलब है की अपने अंदर जो बुराइयां है उसे छोड़ दे :- जीयर स्वामी

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शुभम जायसवाल

श्री बंशीधर नगर (गढ़वा):– भागवत पुराण सिर्फ ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन शैली को आधार देने वाला शास्त्र है। यह जीवन जीने की शैली है। यह उलझे-भटके जीवन को सुलझाने के लिए पर्याप्त है। उन्होंने श्रीमद् भागवत महापुराण के सूत–संवाद की चर्चा करते हुए कहा कि शास्त्र से ही जान पाते हैं कि जीवन में क्या ग्राह्य है और क्या अग्राह्य । शास्त्र को जीवन से हटा दिया जाये तो मानव और पशु के जीवन का अन्तर मिट जाएगा। शास्त्र से धर्म ज्ञान होता है। धर्म-ज्ञान ही मनुष्य और पशु के बीच विनेहक गुण है। आहार, निद्रा, भय और मैथुन मनुष्य और पशु में समान गुण हैं। पशु में धर्म ज्ञान नहीं होता। जिस मनुष्य में यह नहीं है, वह पशु के समान है। मनुस्मृति में कहा गया है :

“आहार, निद्रा, भय, मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिः नाराणाम्। धर्मो हि तेषां अधिको विशेषो धर्मेण हीनाः, पशुभिः समानाः ।।”

यह नियम उन्होंने कहा कि घर में पूजा के लिए रखे शंख को बजाना नहीं चाहिए और बजाने वाले शंख की पूजा नहीं की जाती। उन्होंने कहा कि मिट्टी का पात्र एक बार प्रयोग करने से अशुद्ध हो जाता है, लेकिन दूध, दही और घी आदि वाले मिट्टी के पात्र पर लागू नहीं होता। मानव को जूठा भोजन न करना चाहिए न कराना चाहिए। पति-पत्नी को भी इससे परहेज करना चाहिए। जूठा खाने से प्रेम नहीं बढ़ता बल्कि दोष लगता है। उन्होंने कहा कि सवरी ने भगवान राम को जूठे बैर नहीं खिलाए थे। जिस पेड़ और लता का स्वाद जानती थीं, उन्हीं पेड़ों का फल खिलाया था। उन्होंने कहा कि आम जीवन में जो फल और मिठाई खरीदी जाती है, उसका एक अंश चखकर उसकी गुणवता को परखा जाता है, जिसका अर्थ यह नहीं कि पूरे फल को जूठा कर दिया। उन्होंने कहा कि देश, काल और पात्र के अनुसार धर्म होता है। इसलिए पारमार्थिक रूप से धर्म एक होते हुए भी व्यावहारिक दशा में लोक-मंगल होना चाहिए। रोगी के कल्याण के लिए चिकित्सक द्वारा रोगी के शरीर पर चाकू चलाना उसका धर्म है।

किसी रोगी की जीवन-रक्षा के लिए अपना खून देना स्वस्थ व्यक्ति का धर्म है। अतः धर्म को संदर्भ से जोड़कर देखना चाहिए। अपना आसन, कपड़ा, पुत्र और पत्नी अपने लिए पवित्र होता हैं। दूसरों के लिए नहीं। दूसरे की पत्नी के प्रति सोच और स्पर्श से पाप लगता है लेकिन नाव व किसी वाहन की यात्रा में और अस्पताल, न्यायालय तथा सफर में सामान्य स्पर्श से दोष नहीं लगता। दशमी, एकादशी और द्वादशी तिथि में मर्यादा के साथ रहना चाहिए। एकादशी के दिन अगर उपवास संभव न हो तो रोटी, सब्जी और दाल आदि शुद्ध शाकाहारी भोजन करें लेकिन चावल नहीं खाएं। स्वामी जी ने कहा कि सूर्योदय के डेढ़ घंटे पूर्व ब्रह्ममुहूर्त होता है। कलियुग में सूर्योदय से पैंतालीस मिनट पूर्व जगना चाहिए । जगने के साथ तीन बार श्री हरि का उच्चारण करके, कर-दर्शन और फिर भूमि वंदन करके जमीन पर पैर रखनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अजपा जप मंत्र का संकल्प लेनी चाहिए, जिससे स्वस्थ मनुष्य द्वारा 24 घंटे में 21 हजार 600 बार लिए जाने वाले श्वांस का फल मिल सके।

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