मंदिर में मूर्ति और संत का दर्शन ऑखें बन्द करके नहीं बल्कि श्रद्धा और विश्वास के साथ करना चाहिए : जीयर स्वामी

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(संतों की असली सेवा उनके उपदेशों का पालन है)

शुभम जायसवाल

श्री बंशीधर नगर (गढ़वा) :– पाल्हे कला – जतपुरा में चल रहें पूज्य संत श्री श्री 1008 श्री लक्ष्मी प्रपन्न जियर स्वामी जी महाराज के श्रीमद् भागवत कथा के दौरान शनिवार को कहा कि शास्त्र के अनुसार जो नारी अपने पति को हरि मानकर सेवा करती है, वह बैकुण्ठ लोक में लक्ष्मी के समान पति के साथ विराजती है। नारी समाज निर्माण की नींव हैं। वे सृष्टि चक्र को आगे बढ़ाने के साथ ही भरण, पोषण और समर्पण परम्परा के आधार हैं। स्वामी जी ने कहा कि साधु-संत चाहे कितने भी बड़े एवं विरक्त हो, माताओं को उनके साथ एकांत में कभी मिलने अथवा उनकी सेवा करने की इच्छा जाहिर नहीं करनी चाहिए। स्त्री को अपने पति के अतिरिक्त किसी भी परपुरूष का सान्निध्य वर्जित है। यहाँ तक कि एकांत में किसी अन्य पुरूष के साथ हास-परिहास भी शास्त्र-सम्मत नहीं है।

महिलाओं के लिए एकांत में संतों की सेवा वर्जित-जीयर स्वामी

उन्होंने कहा कि प्रकाश वही देता है, जो स्वयं प्रकाशित होता है। जिसका इंद्रियों और मन पर नियंत्रण होता है, वही समाज के लिए अनुकरणीय होता है। जो इंद्रियों और मन को वश में करके सदाचार का पालन करता है, समाज के लिए वही अनुकरणीय होता है। केवल वेश-भूषा, दाढी-तिलक और ज्ञान-वैराग्य की बातें करना संत की वास्तविक पहचान नहीं। उन्होंने कहा कि विपत्ति में धैर्य, धन, पद और प्रतिष्ठा के बाद मर्यादा के प्रति विशेष सजगता, इंद्रियों पर नियंत्रण और समाज हित में अच्छे कार्य करना आदि साधू के लक्षण हैं।

(माताओं का परम धर्म अपने पति की सेवा)

श्री जीयर स्वामी ने कहा कि मूर्ति की पूजा करनी चाहिए। मूर्ति में नारायण वास करते हैं। मूर्ति भगवान का अर्चावतार हैं। मंदिर में मूर्ति और संत का दर्शन ऑखें बन्द करके नहीं करना चाहिए। मूर्ति से प्रत्यक्ष रुप में भले कुछ न मिले लेकिन मूर्ति-दर्शन में कल्याण निहित है। एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मूर्ति से ज्ञान और विज्ञान को प्राप्त किया। श्रद्धा और विश्वास के साथ मूर्ति का दर्शन करना चाहिए।

स्वामी जी ने कहा कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद्य एवं मत्सर से बचना चाहिए। ये आध्यात्मिक जीवन के रिपु हैं। मत्सर का अर्थ करते हुए स्वामी जी ने बताया कि उसका शाब्दिक अर्थ द्वेष – विद्वेष एवं ईर्ष्या भाव है। दूसरे के हर कार्य में दोष निकालना और दूसरे के विकास से नाखुश होना मत्सर है। मानव को मत्सरी नहीं होना चाहिए। अगर किसी में कोई छोटा दोष हो तो उसकी चर्चा नहीं करनी चाहिए। जो लोग सकारात्मक स्वाभाव के होते हैं, वे स्वयं सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। इसके विपरीत नकारात्मक प्रवृति के लोगों का अधिकांश समय दूसरे में दोष निकालने और उनकी प्रगति से ईर्ष्या करने में ही व्यतीत होता है।

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