नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशीय संविधान पीठ ने गुरुवार को ‘राष्ट्रपति संदर्भ’ मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए राज्य विधायिका से पारित बिलों पर निर्णय की कोई निश्चित समयसीमा तय नहीं की जा सकती। हालांकि, अदालत ने साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया कि राज्यपाल किसी विधेयक को अनिश्चित काल तक लंबित भी नहीं रख सकते।
राज्यपालों का अधिकार असीमित नहीं : सुप्रीम कोर्ट
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने कहा कि राज्यपालों के पास किसी बिल पर निर्णय के लिए केवल तीन विकल्प ही उपलब्ध हैं:
1. विधेयक को मंजूरी देना
2. इसे पुनर्विचार के लिए विधानसभा को लौटाना
3. किसी विशेष प्रावधान पर संदेह हो तो राष्ट्रपति के पास संदर्भ भेजना
पीठ ने स्पष्ट किया कि संविधान राज्यपाल को बिल “लंबित रखने” का अधिकार देता है, लेकिन यह अधिकार असीमित या मनमाना नहीं हो सकता।
समयसीमा तय करना क्यों संभव नहीं?
शीर्ष अदालत ने कहा कि भारत जैसी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में राष्ट्रपति और राज्यपाल के अधिकारों में एक निश्चित लचीलापन रखा गया है। किसी एक निश्चित समयसीमा को लागू करना संविधान के मूल ढाँचे में दखल, सत्ता विभाजन के सिद्धांत के विपरीत तथा संवैधानिक पदों की विस्तार से परिभाषित शक्तियों को सीमित करने जैसा होगा।
पीठ ने स्पष्ट कहा, “हम यह नहीं मानते कि राज्यपाल के पास किसी विधेयक को अनिश्चित समय तक रोक कर रखने का असीमित अधिकार है, लेकिन समयसीमा तय करना भी न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर है।”
राष्ट्रपति ने क्यों मांगा था मार्गदर्शन?
इस पूरे विवाद की शुरुआत तब हुई जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई 2025 में सुप्रीम कोर्ट से यह स्पष्टता मांगी कि क्या अदालत यह निर्देश दे सकती है कि राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर एक निर्धारित समय सीमा के भीतर निर्णय लें।
यह संदर्भ सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल 2025 के फैसले के बाद आया था, जिसमें अदालत ने तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा महीनों तक लंबित रखे गए बिलों पर कड़ी टिप्पणी की थी।
10 दिनों की सुनवाई के बाद आया फैसला
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर की पीठ ने विभिन्न पक्षों की दलीलें लगातार 10 दिनों तक सुनीं। सुनवाई 11 सितंबर को पूरी हुई थी और इसके बाद पीठ ने फैसला सुरक्षित रख लिया था।
गुरुवार को सुनाए गए निर्णय ने अब राज्यपालों और राष्ट्रपति की संवैधानिक भूमिका पर एक महत्वपूर्ण स्पष्टता प्रदान कर दी है।
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