परमात्मा के इच्छा के बिना हम सब कुछ भी नही कर सकते :- जीयर स्वामी।

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शुभम जायसवाल

श्री बंशीधर नगर (गढ़वा):- श्री श्री 1008 श्री लक्ष्मी प्रपन्न जियर स्वामी जी ने कहा की सबसे पहले तो अनर्थ जो जीवन तथा जीवन के व्यवहार में जिस कारण से होता हो उस पर अंकुश लगाएं। अहंकारमय जीवन न हो। जरूर हम करते हैं लेकिन कराने वाला उसी प्रकार से हैं जैसे किसी कठपुतली के नाच को देखा होगा। भले वह नाचते हैं लेकिन नचाने वाला कोई दूसरा है। उसी के इशारे पर कठपुतली नाचता है। ठीक उसी प्रकार हमारे आपके साथ है। हम चाहे जो कुछ भी करते हैं वह परमात्मा अपनी शक्ति के द्वारा हमलोगों को कठपुतली के समान नचाते हैं। उनकी इच्छा नही होती है नचाने के लिए तो अपने आप से तो इस दुनिया में निस्तार हो जाते हैं। किसी के योग्य नही होते हैं। ऐसा विचार कर अनर्थों को त्याग दे। कर्तव्य करें, लेकिन मैं ही करने वाला हूं, मेरे ही द्वारा होता है। ऐसा भाव नही होना चाहिए। 

जिसका सम्प्रदाय सत्य हो, जो ईश्वर को झूठा मानता हो, पूजा को झूठा मानता हो, अपना पैर धोकर पीया रहा हो। कहता है भगवान शालिग्राम का चरणामृत मत पीजिए इन्फेक्शन हो जाएगा, और अपना पैर धोकर पीया रहा है। चल रहा है नया नया धर्म। ऐसे गुरू बाकी दिन उल्टा काम करता है और गद्दी पर बैठ करके उपदेश देता है। अपना पूजा कराते हैं यह कौन सा धर्म है। वैसा गुरू नही हो सकता।

इस दुनिया का इतिहास है कि महापुरूषों का भी विरोध हुआ है।

इस दुनिया का इतिहास है कोई भी आया उसका विरोधी नही हुआ। ऐसा नही है। लेकिन विरोधी नास्तिक हो और वह विरोध करे तो कोई बात नही है, क्योंकि उसको ऐसा होना ही चाहिए, क्योंकि वह परमात्मा के यहां से आया है। लेकिन यह बताया गया है कि अपना सुकृत जन से विरोध न हो। ऐसा शास्त्रों में  निवेदन किया गया है। अन्यथा कोई भी आया है ये दुनिया के लोग ऐसे हैं कि कभी भी आपको कैसे भी रहेंगे चलने नही देंगे, बोलने नही देंगे, देखने नही देंगे। जैसे सिर नीचे करके, नम्रता से चलेंगे तो लोग कहेंगे शर्म से झुक कर चल रहा है। उठा कर चलेंगे तो कहेंगे कि अहंकार पुर्वक चल रहा है। इसलिए महापुरूष लोग अपने विवेक से कार्य करते हैं। भगवान राम और कृष्ण को छोड़ा नही तो क्या हमको और आपको छोड़ेगा। नही छोड़ेगा। विवेकी पुरूष को अपने विवेक द्वारा मर्यादा के अनुसार काम करना चाहिए। चलना चाहिए।

गुरू केवल कोई एक व्यक्ति,शरीर नही, गुरू एक व्यक्ति के अलावा एक दिव्य संदेश, एक उपदेश होता है।

गुरू और ईश्वर में भक्ति होनी चाहिए। गुरू हमारे जीवन का वह कंडिशन हैं, वह एक स्थिति हैं, वह एक स्तर हैं जिसके माध्यम से हम अपने भटके भूले, अटके जीवन को समाधान करने में प्रयाप्त हो जाते हैं। गुरू केवल कोई एक व्यक्ति और केवल शरीर नही, गुरू एक व्यक्ति के अलावा एक दिव्य संदेश होता है। एक उपदेश होता है, एक दिव्य आदेश होता है। एक दिव्य आचरण होता है, जिसके द्वारा हम प्रशस्त मार्गों के अधिकारी होते हैं। व्यवहारिक रूप में गुरू शब्द का मतलब जिसके संरक्षण, छत्रछाया, संवर्धन या जिनके सहवास से हमारे जीवन की किसी प्रकार की जो अधूरापन हो, किसी प्रकार की खामियां हो उन खामियों पर हम अफसोस करें, पश्चाताप करें और अपने जीवन में अच्छे मार्गों पर चलने के लिए संकल्प करें, बाध्य हो जाएं,  ऐसे जिसके द्वारा आदेश प्राप्त होता हो, संदेश प्राप्त होता  हो, चाहे वह धोती कुर्ता में रहने वाला हो चाहे वह गेरूआ कपड़ा वाला हो उसी का नाम गुरू है।

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