श्री बंशीधर नगर (गढ़वा):— मानव जीवन में मनोरथ का अंत नहीं होता बल्कि एक पूरा हुआ नहीं, कि दूसरा मनोरथ खड़ा हो जाता है। बालपन से वृद्धावस्था तक उम्र के हर पड़ाव पर स्नेह और कामनाएं बदलती रहती हैं, लेकिन सुख मृग-तृष्णा बना रहता है। स्वामी जी ने कहा कि मनुष्य का स्नेह एवं सुख की कामना बाल्यकाल से ही परिवर्तित होता रहता है। शिशु काल में बच्चा माँ की गोद में रहना सुख मानता है। बड़ा होने पर पिता के गोद में। फिर साथियों के साथ खेलने में सुख पाता है। विवाह होने के बाद पत्नी के सान्निध्य में सुख का अनुभव करता है। इस तरह माँ से शुरू स्नेह उत्तरोत्तर पुत्र-पौत्र की ओर बढ़ता जाता है, लेकिन वास्तविक सुख की प्राप्ति नहीं होती।
उन्होंने कहा कि सुख केले के थम्भ की भाँति है। थम्भ से परत दर परत छिलका हटाते जायें, लेकिन सार तत्त्व की प्राप्ति नहीं होती। सांसारिक विषय भोग में स्थायी सुख (आनन्द) की प्राप्ति संभव नहीं है, क्योंकि ये त्रिगुणी हैं। गुण (सत्त्व रज और तम) हमेशा परिवर्तनशील हैं। मनुष्य का यह भ्रम है कि वह वस्तुओं का भोग करना है; वास्तविकता तो यह है कि वस्तुएँ ही उसका भोग करती हैं। राजा भर्तृहरि कहते हैं, “भोगा न भोक्ता वयमेव भोक्ता” यानी हम वस्तुओं का भोग नहीं करते हैं, वस्तुएँ ही हमें भोग लेती हैं। अतः विषयों के उपभोग के प्रति अतिशय प्रवृत्ति न रखें।
श्री स्वामी जी ने कहा कि अपने परिवार के साथ रहें। उनका भरण-पोषण भी करें लेकिन जीवन भर उसमें अटके-भटकें नहीं। जैसे रेलवे स्टेशन पर बैठा यात्री, स्टेशन की सुख-सुविधा का उपयोग करे, लेकिन ट्रेन आने पर उस सुविधा को त्यागकर ट्रेन में बैठ जाएं। इसलिए मानव का धर्म है कि परिवार रूपी प्लेटफार्म का अनासक्त भाव से सदुपयोग करे, ताकि जीवन यात्रा के क्रम में यह बाधक नहीं बने। आसक्ति दुःख का कारण है। प्रसंगवश उन्होंने कहा कि मनुष्य को शरीर त्यागने के वक्त जिस विषय-वस्तु में उसकी आसक्ति रहती है, उसी योनि में जन्म लेना पड़ता है। काशी में गंगा की एक ओर एक वेश्या रहती थी। वह अर्थोपार्जन के लिए वेश्यावृत्ति में लगी रहती थी। दूसरी ओर मंदिर में पुजारी पूजा करते थे।
आरती और शंख ध्वनि की तरंगों से वेश्या प्रभावित होती, कि काश! ऐसा अवसर हमें प्राप्त होता। उसका मन मंदिर में अटका रहता। दूसरी ओर पुजारी वेश्या के नृत्य एवं ताल-तरंग से प्रभावित होकर अपना ध्यान वेश्यालय में कायें रहते थे। मन के भटकाव से मरणोपरांत वेश्या मोझ को प्राप्त की और पुजारी वेश्या के घर जन्में। भगवान कृष्ण ने भी गीता के आठवें अध्याय के छठवें श्लोक में कहा है कि ‘यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्, तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभवितः ।
हे कुन्ति पुत्र अर्जुन! यह मनुष्य जिस-जिस भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, उसको वही प्राप्त होता है। स्वामी जी ने कहा कि मानव को अपने शरीर नहीं आत्मा के उद्धार का प्रयास करना चाहिए। चंदन से शरीर जलाने से केवल शरीर का उद्धार होता है। आत्मा का इससे कोई वास्ता नहीं। मन पवित्र हुआ तो सब पवित्र होगा। इसलिये मन के भटकाव व चंचलता को रोकना चाहिए। उन्होंने कहा कि हर स्वस्थ व्यक्ति चौबीस घंटे में 21,600 बार श्वांस लेता है। श्वांस लेने, रोकने और छोड़ने की प्रक्रिया को क्रमशः पूरक, कुंभक एवं रेचक कहा जाता है। प्राणायाम चंचलता एवं मन के भटकाव को रोकने का श्रेष्ठ उपाय है।