जीवन में जबतक हम तप, श्रम और त्याग को नहीं अपनायेंगे तब तक श्रेष्ठ जीवन की कल्पना नहीं हो सकती – रत्नेश जी

On: October 28, 2023 4:54 PM

---Advertisement---
शुभम जायसवाल
श्री बंशीधर नगर (गढ़वा):– पाल्हे-जतपुरा में चल रहे श्री लक्ष्मीनारायण महायज्ञ के अवसर पर श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण की कथा करते हुये अयोध्या से पधारे जगद्गुरू रत्नेशप्रपन्नाचार्य जी ने कहा कि जो अपने पर राज्य नहीं कर सकता वो दूसरे पर क्या राज्य करेगा। पहले अपने इन्द्रियों पर राज्य जो करेगा वही दुनिया पर राज्य कर सकता है।रामराज्य की भूमिका त्याग और साधना से शुरू होती है। श्रीराम साधक बनकर तपस्वी बनकर वन को गये ।जीवन में जबतक हम तप को, श्रम को, त्याग को नहीं अपनायेंगे तब श्रेष्ठ जीवन की कल्पना नहीं हो सकती।
श्रीराम के साथ माता सीता भी वन को गयी ।माता सीता ने कहा पत्नी का अधिकार यदि पति के सुख में है तो दुख में भी होना चाहिये। हमें आगे बढ़कर एक दूसरे की विपत्ति का सहायक बनना चाहिये।”समान सुखदुखयो:।हम हर किसी सुख में हिस्सेदारी तो चाहते हैं पर दुख में साथ छोड़ देते है।हमें अपने देश की विपत्ति में देश के साथ खड़ा होना चाहिये रामायण की कथा हमें ये शिक्षा देती है।धर्म हमें स्वार्थ नहीं त्याग सिखाता है।
भगवान श्रीराम के अवतरण के पूर्व भी राज्य तंत्र था और राजा प्रजापालन भी करते थे, किंतु वे प्रजा की उनके किसी कार्य की क्या प्रतिक्रिया होगी, इसका कदाचित ही चिंतन करते थे। भगवान श्रीराम ने प्रजा की इच्छानुकूल राज्य व्यवस्था की थी। वनगमन के समय जब अनुज लक्ष्मणजी साथ चलने का आग्रह करने लगे, तब प्रजातंत्र का अनन्यतम सूत्र प्रकट करते हुए प्रभु श्रीराम कहते हैं – ‘हे भाई ! तुम यहीं अयोध्या में रहो और सबका परितोष करो, अन्यथा बहुत दोष लगेगा। जिसके राज्य में प्यारी प्रजा दुःखी रहती है, वह राजा अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है।’ ऐसी नृप नीति होने के कारण ही उनके राज्य में सभी सुखी रहते थे। भगवान श्रीराम त्रेतायुग के युगपुरुष थे। सतयुग में धर्म चारों पैरों पर स्थिर रहता है, तो त्रेता में मात्र तीन पदों पर, किंतु तत्समय उनके रामराज्य में ऐसा विलक्षण काल आया, जो सतयुग से भी गुरुतर हो गया। निषादराज तथाकथित निम्न जाति के होने पर भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने उनके साथ जो सखा धर्म निभाया, यही प्रजातंत्र का भी मूल ध्येय है। प्रभु श्रीराम उनको कहते हैं – ‘हे प्रिय मित्र ! तुम भरत तुल्य मेरे भ्राता हो। अयोध्या में आते-जाते रहना।’ श्रीराम के गुणों से माता कैकेयी भी अभिभूत थीं। दासी मंथरा ने माँ को उकसाने की बहुत चेष्टा की, किंतु माता कैकेयी ने श्रीराम के बारे में जो कहा वह अविस्मरणीय रहेगा, ‘राम धर्म के ज्ञाता, गुणवान, जितेंद्रिय, कृतज्ञ, सत्यवादी और पवित्र होने के साथ-साथ महाराज के ज्येष्ठ पुत्र हैं, अतः युवराज होने के योग्य वे ही हैं। वे दीर्घजीवी होकर अपने भ्राताओं और भृत्यों का पिता के सदृश पालन करेंगे। उनके अभिषेक से तू इतना क्यों जल-भुन रही है? मेरे लिए तो जैसी भरत के लिए मान्यता है, वैसी ही बल्कि उससे भी अधिक राम के लिए है, क्योंकि वे कौशल्या से भी बढ़कर मेरी सेवा-सुश्रूषा करते हैं …’।
कथावाचकों में प्रमुख रूप से जगद्गुरु अयोध्यानाथ जी, मारुति किंकर जी,वैकुंठ नाथ, मुक्तिनाथ,चतुर्भुजाचार्य जी आदि ने भी सनातन सद्ग्रन्थों के आधार पर प्रवचन किया।