दुनिया में मशीनें सब चीज बना रही हैं, लेकिन वे मन में संस्कृति, संस्कार और नैतिकता का भाव नहीं पैदा कर सकतीं : जीयर स्वामी

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शुभम जायसवाल

श्री बंशीधर नगर (गढ़वा) :– धर्म वस्तु का प्राकृत स्वभाव है भ्रष्ट संतों से प्रमाणित होती है वास्तविक संतो की विद्यमानता मनुष्य का भाग्य होता है, उसका पूर्व कृत-कर्म धर्म एक पद्धति है। संसार के सभी जड़-चेतन अपने अपने धर्म से ही संचालित होते हैं। धर्म को कभी भी संकुचित दायरे में नहीं आंकना चाहिए । धर्म वह धुरी है, जिससे समस्त जड़-चेतन संचालित होते हैं। जो अपने धर्म से विमुख हो जाता, उसका वजूद समाप्त हो जाता है। हम पतनोन्मुखी हैं तो धर्म हमें बचा लेता है। 

श्री जीयर स्वामी ने कहा कि आज तेजी से नैतिकता का क्षरण हो रहा है। धनार्जन की होड़ लगी है। अपने धर्म के प्रति आस्था कमजोर हो रही है। माता-पिता के प्रति दायित्व कम हो रहा है। आज संस्कृति, संस्कार और नैतिकता का संरक्षण एक चुनौती हो गयी है। ऐसी परिस्थिति में यज्ञ और सत्संग की सार्थकता है। उन्होंने कहा कि दुनिया में मशीनें सब चीज बना रही हैं लेकिन वे मन में संस्कृति, संस्कार और नैतिकता का भाव नहीं पैदा कर सकतीं। यज्ञ और सत्संग के द्वारा ही मानव मन में इनका बीजारोपण हो सकता है। इसीलिए आज संतों का महत्व पहले से अधिक बढ़ गया है।

स्वामी जी ने कहा कि आज साधु-संतों की चर्चा कई मायने में हो रही है लेकिन यह समझना होगा कि जिसका अस्तित्व होता है, उसी की नकल होती है। इसका अर्थ यह नहीं कि उसका मूल ही गलत है। आज-कल कंचन और कामिनी के भोग के संदर्भ में भी संत समाज चर्चित है। आम लोगों का विश्वास संतत्व से डिग रहा है। लेकिन विवेकी जनों को यह समझना चाहिए कि ये नकली साधु संत वास्तविक संत के नकली रूप है। इनकी मौजूदगी से यह समझना चाहिए कि आज भी वास्तविक साधु-संत हैं, जिनका ये नकल कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि जो नोट प्रचलन में होता है उसी की नकल की जाती है। तीन सौ रूपये का नोट नहीं छपता है। इसलिए तीन सौ रूपये का नोट प्रचलन में नहीं है। आज दो हजार का नोट प्रचलन में है। इसलिए तीन सौ रूपये का नोट प्रचलन में नहीं है। आज दो हजार का नोट प्रचलन में है। इसलिए इसका नकली रूप भी है।

स्वामी जी ने कहा कि व्यक्ति को अपनी मर्यादा में रहकर कर्म करना चाहिए। कर्म ही भविष्य में भाग्य बन जाता है। कर्म व्यक्ति को मरने का बाद भी समाज में जिंदा रखता है। यह बैंक में जमा धनराशि की तरह है । पूर्व के कर्म ही वर्तमान जीवन में भाग्य या प्रारब्ध बनकर आता है। स्मरण रहे कि व्यक्ति का भाग्य स्वतंत्र नहीं होता। उसमें माता-पिता के अच्छे-बुरे कर्मों का फल और गुरू की कृपा-दृष्टि इत्यादि सम्मिलित रहते हैं। मनुष्य के जीवन में कर्म की प्रधानता होनी चाहिए।

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