माता-पिता अपने बच्चों को स्नेह के साथ संस्कार भी दें :- जीयर स्वामी

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शुभम जायसवाल

श्री बंशीधर नगर (गढ़वा): समस्त संसाधनों के बावजूद निर्लिप्त रहना ही वैराग्य लोक धर्म के बाद परलोक धर्म में लगें अभाव और प्रतिक्रिया से लिया गया वैराग्य स्थाई नहीं बालक के प्रति स्नेह रखनी चाहिए। उनके बढ़ते उम्र के साथ संस्कार और अनुशासन की शिक्षा आवश्यक है। अनुशासन और संस्कार के बगैर अधिक लाड़-प्यार बच्चों का भविष्य बर्बाद कर देता है। बच्चे जब बड़े हो जाएं तो उनसे भाई जैसा व्यवहार करना चाहिए। श्री जीयर स्वामी ने श्रीमद् भागवत महापुराण कथा में आत्मदेव द्वारा अपने पुत्र धुंधकारी को अत्यधिक लाड़-प्यार के कारण उसका महाखल बन जाने की चर्चा की। उन्होंने कहा कि धुंधकारी शराबी, जुआरी और वेश्यागामी बन गया । वह अपने माता-पिता को मारने पर उतारू हो जाता था। आत्मदेव जी का मंदिर जैसा घर श्मशान बन गया। वे काफी चिंतित थे। गोकर्ण जी उनकी चिन्ता का कारण जान उपदेश देने लगे।

प्रवचन में उमड़ी भक्तों की भीड़

स्वामी जी ने कहा कि जो नश्वर है, उसे शाश्वत मान लेना और शाश्वत को नश्वर मान लेना ही तो अंधकार है। शास्त्रों में अन्धकार को अज्ञान, अविवेक इत्यादि नाम दिए गए हैं। अंधकार या अज्ञान में वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं होता। आध्यात्मिक दृष्टि से विनाशी को अविनाशी माना लेना, क्षणिक को शाश्वत मान लेना, पराये को अपना मान लेना इत्यादि बातें रात्रि के अंधकार सदृश हैं। सांसारिक जीव अंधकार में ही सोते हैं लेकिन योगी-यति इसमें नहीं सोते। गीता कहती है- “या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।” इसी तथ्य को रामचरित्र मानस में इन चौपाइयों में प्रस्तुत किया गया है।

“मोह निशा सब सोवन हारा। देखहिं स्वप्न अनेक प्रकारा।। एहि जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथ प्रपंच वियोगी।।”

जब परिवार आप से आकांक्षा न रखे तो परिवार से मुंह मोड़ लेना चाहिए। किसी वस्तु के अभाव अथवा प्रतिक्रिया से लिया गया वैराग्य स्थायी नहीं होता। सब कुछ रहने के बाद भी मर्यादित जीवन जीना वैराग्य है। समस्त संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद उनके प्रति निर्लिप्त भाव वैराग्य है।