भक्तिपूर्वक परमात्मा का ध्यान करना ही श्रेष्ठ प्रायश्चित है,अहंकार पुर्वक भक्ति नही होनी चाहिए : जियर स्वामी

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शुभम जायसवाल

श्री बंशीधर नगर (गढ़वा):— भक्ति होनी चाहिए, ज्ञानी भी होना चाहिए। उपासक भी होना चाहिए। लेकिन वह ज्ञान, वह भक्ति, वह  उपासना अपने को अंहकार में नही होना चाहिए। हमारे प्रयास और पुरूषार्थ करने के बाद भी, हमारे कर्म और कर्तव्य करने के बाद अगर कहीं भावी बलियसि है, होनी बलियसि है तो परमात्मा के आज्ञा मान करके उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए।

हमारा उद्देश्य ठीक रहेगा तो घर परिवार में रहकर भी शांति प्राप्त कर सकते हैं।

अयोध्या, मथुरा, काशी केवल मुक्ति का कारण नही है। अगर अयोध्या, मथुरा, काशी केवल मुक्त का कारण होता तो चोर, बदमाश, कुकर्मी नही होना चाहिए। यहां रहने से भी कल्याण नही हो जाएगा। हमारा लक्ष्य ठीक नही होगा तो हम चाहें बक्सर रहें, अयोध्या रहें, मथुरा रहें, हम अपने मुकाम तक नही पहुंच पाएंगे। हमारा उद्देश्य ठीक होगा तो हम अयोध्या भी रह करके शांति प्राप्त कर सकते हैं। और घर परिवार में भी रह करके शांति प्राप्त कर सकते हैं।

भगवान की कृपा से हीं सत्संग की प्राप्ति होती है..

भगवान की कृपा से हीं सत्संग की प्राप्ति होती है। जीवन में सन्मार्ग की प्राप्ति होती है। भगवद् भजन में मन लगता है। घर परिवार में मंगल और आनंद की अनुभूति होती है। समाज परिवार में मान सम्मान होता है यह सब भगवान की कृपा से ही होता है। अन्यथा न कृपा रहे तो सब कुछ रहने के बाद भी न किसी के कुछ बनता ही नही है। भगवान की कृपा से ही साधु-संत के सान्निध्य में जाते हैं।

स्वामी जी महाराज ने कहा कि लज्जा हमारी राष्ट्र की संस्कृति है। जहां लज्जा नहीं रहती है वहां सब कुछ रहने के बाद भी कुछ रहने का औचित्य ही नहीं बनता है। लज्जा मानव की गरिमा है। अगर इसे संस्कृति से हटा दिया जाए तो पशु और मनुष्य में कोई अंतर हीं नहीं रह रह जाएगा। उन्होंने कहा कि  लोग विवाह से पहले ही पत्नी के साथ फोटो खिंचवा कर दूसरे को , मित्र को भेज देते हैं। मनुष्य को गरिमा और लज्जा ( शर्म ) का ख्याल रखना चाहिए। यहीं  कारण है कि हम संस्कृति को भूल जाने के कारण सभी साधन रहने के बाद भी हम निराश हैं।

मन द्वारा, वाणी द्वारा, शरीर द्वारा भक्तिपूर्वक परमात्मा का ध्यान करते हुए उनके नाम गुण, लीला, धाम इन चारों का जो उपासना करता है। यह श्रेष्ठ प्रायश्चित है। यह जितना श्रेष्ठ प्रायश्चित है उतना श्रेष्ठ प्रायश्चित यज्ञ, दान, तप भी नही है। यज्ञ, दान, तप करने वाला का हो सकता है उसके पापों का मार्जन न हो। लेकिन जो मन से वाणी से पवित्र होकर नाम गुण, लीला, धाम इन चारों का जो भावना करता है। यहीं सबसे श्रेष्ठ प्रायश्चित है।

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