माता-पिता की उपेक्षा से ईश्वर होते हैं नाराज, सोते-जगते करें परमात्मा का स्मरण।
शुभम जायसवाल
श्री बंशीधर नगर (गढ़वा):– माता-पिता की सेवा मानव का धर्म है। अपनी सेवा से माता-पिता को संतुष्ट करने वाला 33 कोटि देवताओं को भी संतुष्ट कर लेता है। माता-पिता की सेवा नहीं करने वाले साधक से देवता भी प्रसन्न नहीं होते। माता-पिता देव के समान होते हैं। शास्त्रों में भी कहा गया है कि ‘मातृ देवो भव, पितृ देवो भव। श्री जीयर स्वामी ने श्रीमद् भागवत कथा के दरम्यान कहा कि भगवान कपिल अपने पिता कर्दम ऋषि के जंगल में जाने के बाद माता देवहूति की सेवा कर रहे थे। स्वामी जी ने कहा कि माता-पिता की सेवा सबसे बड़ा धर्म है। उन्होंने कहा कि घर में माता-पिता रूपी तीर्थ की उपेक्षा कर तीर्थाटन करना मानव के लिये कल्याणकारी नहीं है। शास्त्रों में माता-पिता का स्थान सर्वोच्च है। माता जन्म देने के साथ ही प्रथम गुरू का कार्य करती हैं। पिता पालनकर्ता होता है। इनसे पोषित होने के बाद ही हम दुनिया को जानते हैं।
स्वामी जी ने कपिल जी और माता देवहूति संवाद की चर्चा करते हुए कहा कि इन्द्रियों के भटकाव को रोकना चाहिए। अच्छे आचरण, अच्छे विचार और अच्छे कार्य को आत्मसात करना चाहिए । कर्म और आचरण की व्याख्या करते हुए बोले कि दूर से गंगाजल लाकर अच्छा कार्य किया, लेकिन उसमें एक बूंद शराब डाल दिया तो कर्म और व्यवहार दोनों निरर्थक हो गये। आचरण विहीन व्यक्ति का कार्य वही है। मनुष्य के जीवन में आचरण उत्तम होना चाहिए। उतम आचरण से हीन व्यक्ति को वेद भी शुद्ध नहीं कर सकता। काम, क्रोध और लोभ को जीवन की साधना में बाधक बताते हुए कहा कि ये सुन्दर भोजन में कंकड़ जैसे बाधक होते हैं। ये मानव जीवन में घुन के समान हैं, जो जीवन का विनाश कर देते हैं। स्वहित में इनका त्याग करना चाहिये। यदि लोभ और क्रोध, व्यक्ति समाज और राष्ट्रहित में है तो वह मान्य है। धर्मपत्नी की चर्चा करते हुए कहा कि पत्नी को चंद्रमुखी होनी चाहिए। चंद्रमुखी से तात्पर्य सुन्दरता से नहीं, बल्कि ताप से तपित और श्रम से थके मनुष्य को घर में आने पर शांति और शीतलता प्रदान करने से है। यही गृहस्थ धर्म की मर्यादा है। पति को भगवान का स्वरूप मानना चाहिए।
श्री जीयर स्वामी जी महाराज ने कहा कि संसार में जितनी भी दिखने वाली वस्तुएं हैं वे सब नास्वर है।ईश्वर प्राप्ति में यह सब बाधा है। क्योंकि जब तक संसार से बैराग्य नहीं होगा जब तक ईश्वर की प्राप्त नहीं हो सकती।जब मनुष्य संसार के बारे में हकीकत जान लेगा तो उसे बैराग्य ले लेगा लेकिन जब ईश्वर के बारे में जान लेगा तो उनसे प्रेम हो जाएगा। भगवान की तरफ खिंचाव होने का नाम भक्ति है। भक्ति कभी पूर्ण नहीं होती। प्रत्यूष उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है। भेद मत में होता है प्रेम नहीं। प्रेम संपूर्ण मत वादों को खा जाता है।भागवत प्रेम में जो आनन्द है वह ज्ञान में नहीं है। ज्ञान में तो अखंड आनन्द है पर प्रेम में अनंत आनन्द है। तपस्या से प्रेम नहीं मिलता प्रत्यूष शक्ति मिलती है। प्रेम भगवान में अपनापन होने से मिलता है। जिसका मिलना अवश्यंभावी है उस परमात्मा से प्रेम करो और जिसका बिछुड़ना।अवश्यंभावी है उस संसार की सेवा करो। प्रेम वही होता है जहां अपने सुख और स्वार्थ की गंदगी नहीं होती। जब तक साधक अपने मन की बात पूरी करना चाहेगा तब तक उसका न शगुण में प्रेम होगा न निर्गुण में। जो चीज़ अपनी होती है वह सदा अपने को प्यारी लगती है। अतः एकमात्र भगवान को अपना मान लेने पर भगवान में प्रेम प्रकट हो जाता है। जब तक संसार से प्रेम है तब तक भगवान में असली प्रेम नहीं है।जब तक नाशवान की तरफ खिंचाव रहेगा तब तक साधन करते हुए भी भगवान की तरफ खिंचाव और उसका अनुभव नहीं होगा। प्रेम मुक्ति से भी आगे की चीज है मुक्ति तक तो जीव रस का अनुभव करने वाला होता है। पर प्रेम में वह रस का दाता बन जाता है। ज्ञान मार्ग में दुख बंधन मिट जाता है और स्वरूप में स्थित हो जाताहै। पर मिलता कुछ नहीं। परंतु भक्ति मार्ग में प्रतिक्षण प्रेम मिलता है।