दिन में उत्तर दिशा और रात में दक्षिण दिशा की तरफ मुँह करके मल-मूत्र का त्याग नहीं करना चाहिए, धन और यश की हानि होती है..
शुभम जायसवाल
श्री बंशीधर नगर (गढ़वा) :– पूज्य संत श्री श्री 1008 श्री लक्ष्मी प्रपन्ना जियर स्वामी जी महाराज ने भागवत कथा सुनाते हुए कहा कि मानव जीवन में गृहस्थ आश्रम महत्वपूर्ण है। उसके जैसा कोई आश्रम नहीं है। यह आश्रम गृहस्थ को धर्म अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ फल प्राप्त कराता है। गृहस्थ जीवन में रहकर भी भगवान का सान्निध्य सुगमता पूर्वक प्राप्त किया जा सकता है। समाज में अधिक संख्या गृहस्थों की है। जो गृहस्थ अपने को परमात्मा से जोड़ना चाहता है उसे शास्त्र वर्जित आहार-व्यवहार नहीं अपनाना चाहिए। जिस गृहस्थ के घर में छः प्रकार के सुख नहीं है वह गृहस्थ कहलाने का अधिकारी नहीं है। गृहस्थ आश्रम से भिन्न ब्रह्मचर्य आश्रम और संन्यास आश्रम का पालन करना कठिन है।

स्वामी जी ने कहा कि सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम श्रेष्ठ माना गया है। गृहस्थ आश्रम छ सुख आवश्यक है।
गृहस्थ आश्रम में सात्विक कर्मों से धन की वृद्धि होनी चाहिए। रोग मुक्त जीवन होना चाहिए। स्त्री सिर्फ रूप-रंग से नहीं बल्कि आचरण और वाणी से भी सुन्दर होनी चाहिए। पुत्र आज्ञाकारी होना चाहिए। अर्थ का उपार्जन वाली शिक्षा अध्ययन होना चाहिए। स्वामी जी ने कहा कि गृहस्थ जीवन में रहते हुए अगर ये सुख उपलब्ध नहीं हैं तो अपने को सच्चा गृहस्थ नहीं मानें गृहस्थ आश्रम में पुत्र की चर्चा करते हुए स्वामी जी ने कहा कि अगर चार भाई है और एक भाई को भी संतान है तो अन्य तीनों भाई भी पुत्र के अधिकारी हो जाते हैं। पुत्र से अभिप्राय केवल तनय से नहीं बल्कि भाई के पुत्र भी आप के पुत्र हुए। गृहस्थ आश्रम के लिए कोई निर्धारित वस्त्र है। वे किसी तरह का मर्यादित वस्त्र धारण कर सकते है। लेकिन संत का आचरण और वस्त्र उनके पहचान होते हैं।

स्वामी जी ने कहा कि धर्म के दस लक्षण है। यानी धैर्य क्षमा, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इन्द्रियों को वश में रखना, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध ये धर्म के लक्षण है। स्वच्छता की चर्चा करते हुए स्वामी जी ने कहा कि स्वच्छता का तात्पर्य बाहरी और भीतरी स्वच्छता से है। भगवान बार-बार कहते है कि जिसका मन निर्मल रहता है उसे ही मैं अंगीकार करता हूँ।
‘निरमल मन जन सो मोहि पावा
मोहि कपट छल छिद्र न नावा।।
